सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

डबल डायरशाही का शिकार नीमूचाणा



पिछले दिनों इंग्लैण्ड के प्राइम मिनिस्टर डेविड कैम्रून ने अपनी भारत यात्रा के दौरान जलियांवाला बाग जाकर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी और जो कुछ उन्होंने कहा था उसका सार यह था कि इंग्लैण्ड के इतिहास में इसे एक बुरी घटना माना जायेगा। कैम्रून ने यद्यपि क्षमायाचना यह कहकर नहीं की कि वह हत्याकाण्ड उनके जन्म से पूर्व हुई दुखद घटना थी। जो भी हो, इंग्लैण्ड के प्राइम मिनिस्टर के इस कथन से यकायक अलवर जिले के एक कृषक प्रधान गांव नीमूचाणा का स्मरण हो आता है जहां अंग्रेजों और महाराजा की फौज ने मिलकर भारी संख्या में आदमी, औरतों और पशुओं को मौत के घाट उतार दिया था।

महात्मा गांधी ने इस हत्याकांड पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि - यह जलियांवाला काण्ड से भी भीषण दुखान्तिका थी। उन्होंने इसे डबल डायरशाहीकी संज्ञा दी थी। विद्यार्थी जी ने इस कृषक आंदोलन और उसमें हुए हत्याकांड के खिलाफ न केवल समाचार ही प्रकाशित किये बल्कि लेख और कविताएं भी प्रकाषित कीं। 25 मई, 1925 को एक भुक्तभोगीकी कष्ट कथा को उन्होंने विस्तार से प्रकाशित किया। इस कष्ट कथा का जो आलेख प्रतापमें प्रकाशित हुआ था, उसकी निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं:-

‘‘अलवर राज्य के अन्तर्गत एक गांव नीमूचाणा है। वहां के निवासियों के साथ जो घोर अत्याचार व नर-पिशाच  कर्म हुआ है, उसको सुनकर किसके रोमान्च खड़े नहीं होंगे? किसका ऐसा पाषाण हृदय है जो उस कथा को सुन विदीर्ण न होगा? मैं 14 तारीख के पहिले तीन चार लाख का आसामी था। मेरे कुटुम्ब में अठारह औरत, मर्द व बाल बच्चे थे। परन्तु आज हमारे अलवर के शासकों की कृपा से हम सिर्फ दो भाई शेष हैं। एक अलवर की जेल में है, दूसरा सिर्फ मैं हूं जो दुर्भाग्य से बच गया हूं। बाकी सब मशीनगन, तोपों व फौजी सिपाहियों की बन्दूकों के निशाने बन गये, कुछ आग में जल गये। अलवर राज्य ने जो अन्यायपूर्ण कानून बनाये हैं वे दुनिया के किसी राज्य में आज तक प्रचलित नहीं हुए।‘‘  इतना ही नहीं विद्यार्थी जी ने 6 जुलाई 1925 के अंक में ‘‘फुलझड़िया‘‘ शीर्षक से नीमूचाणा काण्ड पर एक कविता भी प्रकाशित की।

राजस्थान के स्वाधीनता सेनानियों से विद्यार्थी जी का जीवन्त सम्पर्क था। सन् 1922 में जब मध्यप्रदेश  और राजस्थान में सामाजिक एवं राजनैतिक चेतना जागृत करने के उद्देश्य से दिल्ली के मारवाड़ी पुस्तकालय में एक बैठक बुलाई गई और राजपूताना मध्यभारत सभाका गठन किया गया तो विद्यार्थी जी इस संस्था के सक्रिय सदस्य बनाये गये। राजस्थान में उस समय जो राजनैतिक पत्र निकल रहे थे, वे भी विद्यार्थी जी से निरन्तर प्रेरणा और मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। 1923 में जब विद्यार्थी जी को अंग्रेज विरोधी राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत लेखन के लिए जेल हुई तो अजमेर से प्रकाशित तरूण राजस्थान साप्ताहिकने उनके बंदीगृह गमन पर एक कविता प्रकाशित की। इस ऐतिहासिक कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:-

जिसके प्रतापने हिन्दी को अपने प्रताप से चमकाया।
जिसका स्वातन्त्रय उलूकों को फूटी आंखों न कभी भाया।
जिसकी स्मृति भर ग्राम्य सरों के पद्मों  को हुलसाती थी।
जिसके भय से अत्याचारी को सुख की नींद न आती थी।
उसका बंदीगृह जाना भी कुछ नूतन रंग जमायेगा।
दिनकर रजनी अंचल में भी स्वातन्त्रय प्रभा छिटकायेगा।।

यह दुखद प्रसंग है कि राजस्थान के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास लेखकों और पत्रकारिता के इतिहास ग्रंथों की रचना करने वाले विद्वानों ने विद्यार्थी जी के इस योगदान का उल्लेख विस्तार से नहीं किया है। आज के समय में जबकि पत्रकारिता निरन्तर व्यवसाय होती जा रही है और इस क्षेत्र में भी पीत पत्रकारिता करने वाले अवांछनीय तत्व जुड़ गये हैं, ऐसे में गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादकीय आदर्श  हमारा मार्गदर्शन करें, इसके लिए विभिन्न पत्रकार संगठनों और स्वाधीनता सेनानी संगठनों द्वारा उनकी जयन्ती और पुण्यतिथि पर संगोष्ठियों और परिचर्चाओं का आयोजन किया जाना चाहिए।

विद्यार्थी जी की लौह लेखनी और राजस्थान


              
हिन्दी के पुरोधा पत्रकार और महान् स्वतंत्रता सेनानी शहीद, गणेश  शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को उत्तरप्रदेश  के एक गांव में हुआ था और मात्र 41 वर्ष की आयु में वे 25 मार्च, 1931 को शहीद हो गये थे। विद्यार्थीजी ने अन्य क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों की भांति अंग्रेजों की गोलियां नहीं खायी थीं, वे अपने ही भाइयों के हाथों शहीद हुए थे। उनका आत्मोत्सर्ग गांधी जी और इन्दिरा गांधी की तरह का था। सन् 1931 में जब कानपुर में साम्प्रदायिक दंगे भड़के तो वे रात-दिन दंगाग्रस्त क्षेत्रों में अमन-चैन स्थापित करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाते रहे। एक दिन इन्हीं दंगाइयों ने उनका प्राण हरण कर लिया।

विद्यार्थीजी ने समूचे हिन्दी भाषी राज्यों में आजादी की अलख जगाने और राजनैतिक चेतना जागृत करने का महान् उपक्रम अपने तेजस्वी पत्र प्रतापके जरिये किया था। प्रतापकी तेजस्वी भूमिका की कल्पना विद्यार्थी जी के इस कथन से की जा सकती है, जो उन्होंने अपने पत्र के पहले अंक में प्रकाशित  किया था। उन्होंने कहा था कि किसी की प्रशंसा या अप्रशंसा, किसी की प्रसन्नता या अप्रसन्नता, किसी की घुड़की या धमकी हमें सुमार्ग से विचलित न कर सकेगी। साम्प्रदायिक और व्यक्तिगत झगड़ों से प्रतापसदा अलग रहने की कोशिश  करेगा, उसका जन्म किसी विशे ष सभा, संस्था, व्यक्ति या मत के पालन-पोषण के लिए या रक्षण अथवा विरोध के लिए नहीं हुआ है, किन्तु उसका मत स्वतंत्र विचार और उसका धर्म सत्य होगा, जिस दिन हमारी आत्मा इतनी निर्बल हो जाय कि हम अपने प्यारे आदर्शों  से डिग जायं, जान-बूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करे और उदारता, स्वतंत्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरूता दिखाये, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारे नैतिक मूल्यों के पतन के साथ ही साथ हमारे जीवन का अन्त हो जाय।

विद्यार्थीजी ने जब तक वे जीये, अपने इसी संपादकीय धर्म का पालन किया और वे असत्य और अन्याय के विरूद्ध अपनी लेखनी से निरन्तर प्रहार करते रहे, बल्कि बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि राजस्थान में जब सामन्तों और जागीरदारों के अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर थे और जन-जीवन पूरी तरह त्रस्त था, विद्यार्थी जी ने पत्र के जरिये यहां के जन-आंदोलनों को प्रबल समर्थन दिया था। सन् 1922 में जब लाग-बागऔर बेगारके खिलाफ बिजोलिया के किसानों ने विद्रोह का झण्डा उठाया और भारत के स्वाधीनता आंदोलन  के इतिहास में प्रसिद्ध बिजोलिया का कृषक आंदोलन चलाया था तो विद्यार्थी जी ने न केवल उस आंदोलन को समर्थन ही दिया, अपितु उन्होंने यहां के राजनैतिक कार्यकर्ताओं से निरन्तर सम्पर्क बनाये  रखकर उनका मार्गदर्शन भी किया। 14 जून, 1920 को उन्होंने बिजोलिया पर काले बादलशीर्षक अपनी टिप्पणी में बिजोलिया के जागीरदार के क्रूर-कर्मों की न केवल भर्त्सना की, अपितु महाराणा मेवाड़ को भी ललकारा और उन्हें अपने सुप्त गौरव का स्मरण इन शब्दों में करायाः-

हम अत्यन्त नम्रता के साथ एक बात बिजोलिया के किसानों के सांसारिक प्रभु श्रीमान् महाराना साहब से कह देना चाहते हैं और वह यह है कि ईश्वर ने उन्हें एक बड़ा काम सौंपा था, उन्हें एक बड़े राज्यवंश में जन्माया था, ऐसे राजवंश  में जिसके राजा देश  और देश  के लोगों के लिए अपने प्राणों की बलि देना अपना धर्म मानते थे, परन्तु उन्होंने उस धर्म को नहीं निभाया जो जन्म और कर्तव्य के कारण उनको निभाना चाहिये था, पुरानी रूढ़ियों और निरंकुशता की आदतों ने उनकी दृष्टि के सामने उन लोगों को पिसते और कुचलते ही रहने दिया, जिनकी रक्षा का भार उन पर था। यह साधारण बात नहीं। एक मीठा विश्वास  है जिसके वशीभूत होकर निरंकुश  लोग निरंकुशता   करते हैं, दूसरों के सिरों पर चलते हैं और सदा यही समझते हैं कि हमारा क्या बिगड़ेगा?’

बिजोलिया ही नहीं, आगे चलकर बेगूं और सिरोही में जो किसान आन्दोलन हुए, उनके समर्थन में भी विद्यार्थी जी ने अपने पत्र में समाचार और टिप्पणियां प्रकाशित कीं।

काव्य प्रतिभा के कुबेर ललित गोस्वामी




गौर वर्ण, मँझला कद, बहुत हल्की मूँछें, पान की पीक से रंगे होठ, धोती, कुर्ते का परिधान, ऐसा ही कुछ बहिरंग व्यक्तित्व था आज गुमनाम हुए ललित गीतों के रचनाकार ललित गोस्वामी का। उन्हें गुजरे हुए लगभग आधी सदी होने को आई। वे कोई नौकरी-चाकरी नहीं करते थे और उनकी औपचारिक शिक्षा भी साधारण ही हुई थी, पर काव्य-प्रतिभा के वे कुबेर ही थे। एक वक्त था जब आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से सुगम संगीत के कार्यक्रमों में उनके नाम की धूम थी। गरीबी उनको विरासत में मिली थी, लेकिन दिल की दौलत से वे भरपूर थे। मेरी उनकी मैत्री कोई सन् 1957 में शुरू हुई और 1962-63 में उनके निधन के साथ ही समाप्त हो गई। यह वह दौर था जब आकाशवाणी के जयपुर केन्द्र पर हम दोनों की जबरदस्त डिमांड बहुतों के लिए ईष्र्या का विषय था। उन दिनों जयपुर आकाशवाणी पर उदयशंकर भट्ट और राज नारायण बिसारिया जैसे सरनाम सर्जक चीफ प्रोड्यूसर और प्रोड्यूसर थे। उदय शंकर जी भट्ट जैसी दिग्गज साहित्यिक हस्ती की ललित जी पर विशेष कृपा थी। उनके साथ ही मैंने पहली बार और आखिरी बार भंग-भवानी की तरंग का अनुभव किया था। भट्ट जी प्रतिदिन भंग पीकर ही शायद रचना-कर्म करते थे। ललित जी को पान खाने के अतिरिक्त कोई व्यसन नहीं था, गो कि वे सूक्ष्म मात्रा में यदा-कदा भंग और मदिरा दोनों का ही आस्वाद कर लेते थे।

ललित गोस्वामी ने मुझे कभी अपना निवास नहीं दिखाया था। हमारा मिलन स्थल प्रायः गवर्नमेन्ट हॉस्टल के सामने एक चाय की दुकान पर ही होता था। जब-तब वे मेरे दफ्तर और घर पर भी आ जाते थे। दरअसल उनका रैन-बसेरा अजमेर रोड़ की एक कच्ची बस्ती में ही था, जिसका पता मुझे कारूणिक स्थिति में बिना दवा-दारू के उनके अकस्मात् निधन पर ही लग सका। जो हालात मैंने देखे, उनसे मेरा कलेजा फटने लगा था। सर्दी के मौसम में ठीक से बिस्तर भी उनके पास नहीं थे। रहने वाले थे तीन- उनके माता-पिता और एक बेरोजगार भाई। बहरहाल।

ललित गोस्वामी के लयात्मक गीतों का एक संकलन प्रसिद्ध प्रकाशक आत्माराम एण्ड सन्स ने ‘मेरे सौ गीत‘ नाम से छापा था, जो काफी चर्चित रहा था। उसी संकलन से एक गज़लनुमा गीत की दो पंक्तियाँ मुझे अभी भी याद हैं। उन्होंने लिखा था -
आज वो सपनों में आये, मुस्कुराकर चल दिये।
जैसे श्यामल घन कहीं, बिजली गिराकर चल दिये।।

गोस्वामी के गीतों का मूल स्वर रूप, रस, रोमान्स का ही था, किन्तु हास्य-व्यंग्य की रचनाएं करने में भी वे सिद्धहस्त थे। जयपुर आकाशवाणी से उनके बंडल कवि के  नाम से प्रसारित धारावाहिक ‘चाय-चालीसा‘ की कुछ पंक्तियाँ मेरे जेहन में अभी भी हैं:-
हीरोइन के हाथ की मिले एक कप चाय।
तो भूमंडल छोड़कर कौन स्वर्ग को जाय?
कौन स्वर्ग को जाय जहाँ होटल ना ढ़ाबा,
बसें देव ही देव और बाबा ही बाबा।

पारसी शैली में लिखित ‘रंगीलाल‘ नाम से प्रसारित उनका एक अन्य हास्य धारावाहिक भी बहुत पॉपूलर हुआ था। उनके अस्वस्थ होने पर इसकी कुछ कड़ियाँ मैंने भी लिखी थी।

उनके मुफलिसी  के दौर में तत्कालीन मुख्य सचिव आदरणीय भगवत सिंह जी मेहता से आज्ञा प्राप्त कर मैंने कुछ विकास-गीत भी उनसे लिखवाये थे, जो स्व. राजेन्द्र शंकर जी भट्ट द्वारा जनसंपर्क निदेशालय से दो-तीन संकलनों के रूप में प्रकाशित हुए थे। पर ऐसी छोटी-मोटी आर्थिक सहायता कितने दिन कारगर होती।

ललित गोस्वामी के निधन को कोई पचास साल के आस-पास हो आये, पर किसी साहित्यिक संस्था ने उन्हें याद नहीं किया। राज्य की साहित्य अकादमी यदि उन पर मरणोपरान्त एक मोनोग्राफ निकाल सके, तो यह उनके प्रति विलम्बित ही सही, उपयुक्त श्रद्धांजली होगी।

रविवार, 16 दिसंबर 2012

कितने विलक्षण थे वे पेथोलॉजी प्रोफेसर


चिकित्सा शास्त्र में एक ऐसी मनोवैज्ञानिक बीमारी का उल्लेख है,  जिसके रोगी को,  चाहे वह कितना ही भद्रजन हो,  चुपके-से छोटी-मोटी मन पसंद चीज़ चुरा लेने में पराक्रम बोध होता है। कहते हैं, इंग्लैण्ड के एक शहज़ादे को यही रोग था। इसलिए जब कभी वे सेवकों के साथ शॉपिंग   पर जाते थे और किसी प्रिय स्टोर पर खरीदारी करने लगते थे, तो सेवक और सेल्स काउण्टर के प्रभारी इधर-उधर हो जाते थे। इस बीच शहज़ादा नज़र चुरा कर अपनी पसंद की चीज़ें ओवर कोट में डाल लेता था। उनके जाने के बाद जो भी वस्तुएं वहां से मिसिंग पाई जातीं,  उनका बिल राज भवन को भेज दिया जाता था। कुछ ऐसा ही रोग बताया जाता था पेथोलॉजी के एक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रोफेसर को, जो कभी जयपुर में ही निवास करते थे। उनकी असाधारण प्रतिभा का आलम यह था कि उन्होंने पेथोलॉजी के क्षेत्र में शीर्षतम उपाधियां प्राप्त की थीं और श्रेष्ठतम कोटि का शोध कार्य किया था। यही कारण था कि वे सीधे प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किए गए थे। खद्दर का धोती कुर्ता पहनने वाले वे मेडिकल कालेज के एक ही विचित्र प्राध्यापक थे। एक आइ.ए.एस. अधिकारी के ज़रिए मैं उनके निकट सम्पर्क में आया था। उनके साहित्यानुराग के कारण वे मेरे पास अक्सर आते रहते थे। मैं स्तंभित रह गया था,  जब मैंने उन्हें प्राच्य विद्या विदों और संस्कृत विद्वानों के एक सेमिनार में धारा प्रवाह संस्कृत में बोलते देखा। वे सचमुच अपने विषय के अतिरिक्त संस्कृत के उद्भट विद्वान भी थे। उनकी परिकल्पना एलोपैथी चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा हिन्दी के माध्यम से संभव बनाने की थी। प्रयोगात्मक रूप से उन्होंने ‘’प्रज्ञान’  के नाम से एक पत्रिका भी निकाली थी।

टी.पी. भारद्वाज के नाम से विख्यात् ये प्रोफेसर मेडिकल कॉलेज में अपने विभाग के लिए की गई बड़ी खरीद के सिलसिले में वित्तीय अनियमितताओं में फॅंस गए। भ्रष्टाचार विभाग द्वारा धरपकड़ हुई। जांच का लम्बा सिलसिला चला। जैसा कि प्रवाद प्रचलित था,  जांच के दौरान उन्होंने एक बार कुछ कागज़ जांच अधिकारी के हाथ से छीन कर मुंह में चबा लिए और निगल गए। उनका निलम्बन हुआ। कई बरस जांच चलती रही। बेचारे बड़े परेशान थे। अक्सर ऐसा देखा गया है कि इस कोटि के विशिष्ट विद्वान् प्रशासनिक मामलों में शातिर न होने के कारण ऐसे कुचक्रों में फॅंस ही जाते हैं। डा. भारद्वाज ऐसे ही अभागों में थे। लम्बी एन्क्वाइरी के बाद उन्हें कुछ प्रकरणों में दोषी पाया गया और शासन के शीर्ष स्तरों पर पड़ताल के बाद कार्मिक विभाग ने उनके लिए यह दण्ड तज़बीज़ किया कि उन्हें रीडर के पद पर पदावनत कर दिया जाए। इस प्रस्तावित दण्ड पर लोक सेवा आयोग की सहमति भी आवश्यक थी। पत्रावलि आयोग को डिस्पैच होने वाली थी कि डा. भारद्वाज मेरे पास भागे हुए आए। वे हाइकोर्ट जाने की तैयारी मानसिक रूप से कर चुके थे। मैंने उन्हें थोड़ा ठंडे दिमाग से समझाया-‘डा. साहब, आपकी नियुक्ति सीधे प्रोफेसर के पद पर हुई थी। आप लेक्चरर से रीडर और रीडर से प्रोफेसर नहीं बने थे। दण्ड स्वरूप नीचे के पद पर उसे डिमोट किया जाता है,  जो प्रमोशन से ऊपर गया हो। सरकार आपको पदावनत करने की कानून सम्मत स्थिति में नहीं है। वह या तो आपकी सेवाएं समाप्त करे या आपको पुनः प्रोफेसर के पद पर स्थापित करे। डा. भारद्वाज को मेरा तर्क उचित लगा। उन्होंने मामला लोक सेवा आयोग में जाने पर आयोग-अध्यक्ष से भेंट कर अपना तर्क रखा। उनका तर्क विवेक सम्मत था। डा. भारद्वाज की योग्यता का दूसरा व्यक्ति सहज ही उपलब्ध नहीं होने वाला था। अन्ततः कुछ वेतन वृद्धियां खो कर ही सही,  डा. भारद्वाज अपनी  जंग में विजयी रहे।

अनुमान है कि साल-दो साल बाद वे जोधपुर मेडिकल कॉलेज में प्रिन्सिपल हो कर चले गए। एक दिन शाम तक भारद्वाज अपने बंगले पर नहीं लौटे। खोज-बीन शुरु  हुई। उनकी कार कॉलेज के मार्ग में एक पेड़ से टकराई हुई दिखाई दी। नज़ारा हृदय विदारक था। डा. टी.पी. भारद्वाज के प्राण पखेरु उड़ चुके थे। विशेषज्ञों ने निर्णय दिया कि उन्हें फेटल हार्ट अटैक हुआ था। एक विद्वान् प्रोफेसर की यह दुःखान्तिका सभी परिचितों के लिए त्रासद थी।

अज्ञेय जी के साथ आचमन



    ज़िन्दगी का यह तमाशा  कुछ पहर है ।
             भूल मत यह तो जनाज़े का सफर है ।।

राजस्थान के यशस्वी कवि और साहित्यकार स्वर्गीय प्रकाश  आतुर की ये पंक्तियां  उनकी स्मृति के साथ रह रह कर याद आती हैं। प्रकाश  भाई का रोम-रोम प्रबल जिजीविषा की उत्ताल तरंगों से तरंगायित रहता था। हर समय गर्म जोशी  के साथ मिलना और कहकहे लगाना  उनके व्यक्तित्व की बुनावट का बेहद खूबसूरत हिस्सा था,  पर वे जीवन की क्षण भंगुरता के प्रति भी हर समय सजग रहते थे और कदाचित् यही कारण था कि वे हर दिन को उत्सव की तरह व्यतीत करते थे। वे भोर की पहली किरण के साथ गुनगुनाते उठते थे और शाम की तन्हाइयों को ज़िन्दादिल दोस्तों की सोहबत और उनके साथ होने वाली चुहलबाज़ी और आपान गोष्ठियों के आयोजन से आनन्दमय बना लेते थे।

मैं अकेला ही ऐसा व्यक्ति नहीं हूं,  जिसके साथ प्रकाश  आतुर के अन्तरंग रिश्ते  थे। बाड़मेर से ले कर बांसवाड़ा तक बीसियों सृजनधर्मी उनकी मैत्री की उस परिधि में समाविष्ट थे,  जिसका विस्तार निरन्तर होता ही रहता था।

आज उनके पुण्य स्मरण के समय मुझे एक ऐसे प्रसंग का ध्यान सहसा आ जाता है,  जिसे विस्मृत कर देना मेरे लिए कठिन होगा।

राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के रूप में प्रकाश आतुर के साहित्यिक रिश्तों  का विस्तार बहुत हो गया था और उन्हीं के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण राजस्थान के साहित्यिक बन्धुत्व ने भी बहुत प्रसार पाया था। बड़े-बड़े लेखक उनके आग्रह को टाल नहीं सकते थे । कुछ वर्षों पहले की बात है - माउण्ट आबू में एक लेखक सम्मेलन का आयोजन किया गया था,  जिसमें अज्ञेय जी विशिष्ट  अतिथि थे। अज्ञेय जी का व्यक्तित्व भारतीय लेखक समुदाय में अपूर्व था। उनकी शान  और उनके सृजन की धाक तो थी ही, उनका वाणी संयम भी गज़ब का था। बहुत कम बोलते थे,  बहुत कम खुलते थे। अनेक बार उनके इस संयम को ‘स्नॉबरी’  भी समझा जाता था। उस दिन 26  जून थी। रात्रि को मैंने उन्हें बताया कि आज प्रकाश  जी का जन्म दिन है। वे सुन कर बड़े प्रसन्न हुए। इतनी देर में प्रकाश भाई जी भी आ पहुंचे और अज्ञेय जी से अनुरोध किया कि कुछ समय हमारे साथ रह कर आशीर्वाद प्रदान करें। प्रकाश  जी के कक्ष में आकस्मिक आगन्तुकों के कारण विघ्न हो सकता था,  इस आशंका  से आयोजन मेरे कक्ष में रखा गया। अज्ञेय जी, प्रकाश  भाई,  सावित्री परमार और हमारे आत्मीय मित्र ओम थानवी उस अनौपचारिक जन्मोत्सव में शामिल थे। लोगों को बड़ा आश्चर्य  हुआ, जब हमने बताया कि प्रकाश जी का जन्म दिन होने के कारण अज्ञेय जी ने हमारे आग्रह पर चषक ग्रहण कर हमारी हैसियत में इज़ाफा किया था।

कुछ अरसे पहले अज्ञेय जी के शताब्दी वर्ष में ओम  थानवी जी ने, जो अज्ञेय जी के बहुत निकट रहे थे,  उनके संस्मरणों के दो खंड ’अपने-अपने अज्ञेय’  शीर्षक से प्रकाशित किए थे।  पृथुल कलेवर वाले ये संस्मरण-संकलन दो खंडों में प्रकाशित किए गए हैं। वाणी प्रकाशन द्वारा किए गए इस साहसिक उपक्रम की सराहना निश्चित ही की जानी चाहिए, किन्तु पंद्रह सौ रुपए के मूल्य के प्रत्येक खंड की पहुंच सामान्य पाठक तक न हो कर केवल पुस्तकालयों तक ही हो सकेगी।

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

समस्याएं सत्तर के पार पेन्शनर्स की


वैसे तो राज्य सरकार के आदेश हैं कि जिस दिन भी राज्य कर्मचारी सेवा-निवृत्त हो, उसकी पेन्शन, ग्रेच्युटी, लीव-एनकैशमैन्ट आदि के सारे कागजात उसी दिन डिलीवर कर दिये जाने चाहिए, किन्तु यह तथ्य भी छिपा नहीं है कि अनेकानेक कारणों से उनकी इन प्राप्तियों में अडंगे लगते रहते हैं और पीड़ित व्यक्तियों को न्यायालयों की शरण भी लेनी पड़ती है। बहरहाल!

समस्यायें गौर तलब उन पेन्शनर्स की हैं, जो सत्तर के पार पहुँच चुके हैं। उनमें 75  से लेकर 80-85  और 90-95  तक की आयु के पेन्शनर्स हैं, जो शारीरिक रूप से नितान्त असमर्थ हो चुके हैं। इनमें अच्छी खासी संख्या पारिवारिक पेन्शन प्राप्त करने वाली विधवाओं की है। इस आयु वर्ग के पेन्शनर्स को अपनी पेन्शन प्राप्त करने में कितनी कठिनाइयाँ होती हैं, इसका अनुमान कदाचित् राज्य के पेन्शन विभाग को भी नहीं है। किस प्रकार पहली तारीख को या इसके बाद ये बुजुर्ग पेन्शनर्स बसों में धक्के खाते हुए विभिन्न बैंकों तथा पेन्शन डिस्बर्समैन्ट केन्द्रों तक पहुँचते हैं, इस पीड़ा को मुक्त भोगी लोग ही जानते हैं। इतनी अधिक आयु के पेन्शनर्स में कुछ तो हतने अशक्त हैं कि उनसे चला भी नहीं जाता। बड़ी उम्र के इन लोगों में अधिकांशतः किसी न किसी बीमारी से पीड़ित होते हैं। उनके हाथों की अँगुलियाँ काँपने लगती हैं। बैंक में स्पेसीमैन सिग्नेचर नहीं मिलते, तो दिक्कत होती है, बार-बार हस्ताक्षर कराये जाते हैं। पेन्शन राशि लेने की प्रक्रिया में ही दिन पूरा हो जाता है।

वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण का जो कानून राज्य में लागू हुआ है, उसके नियमों में यह भी प्रावधान है कि वरिष्ठ नागरिकों के लिए गरिमापूर्ण और सुविधापूर्ण जीवन सुनिश्चित करने के लिए जिला मजिस्ट्रेट नियमों में प्रावधित कर्तव्यों के अतिरिक्त और भी बिन्दु जोड़ सकते हैं। ऐसे में क्या यह व्यवस्था नहीं की जा सकती कि हर जिले में ऐसा तन्त्र विकसित किया जाय, जिसके माध्यम से 70  से लेकर ऊपर की अधिकतम आयु के पेन्शनर्स की पेन्शन उनके निवास पर ही भुगतान कर दी जाये। सरकार को इसके लिए कोई तन्त्र विकसित करने के लिए अतिरिक्त कार्मिक व्यवस्था करने की आवश्यकता भी नहीं होगी। सरकार के कितने ही विभाग ऐसे हैं, जिनमें आवश्यकता से अधिक कर्मचारी हैं और वे अधिकांश समय में मस्ती ही मारते रहते हैं। ऐसे कर्मचारियों को उन विभागों से लेकर लेखा सेवा के किसी अधिकारी के अधीन इस सेवा-कार्य में लगाया जा सकता है।

60  से 65 वर्ष की आयु तक के कुछ पेन्शनर्स को भी तर्कसम्मत पारिश्रमिक देकर उनकी सेवाओं का उपयोग इस कार्य के लिए किया जा सकता है। नगर निगम के अन्तर्गत जितने जोन्स हैं, उन्हें ध्यान में रखकर प्रत्येक जोन के लिए ऐसे पेन्शन-वितरक तैनात किये जा सकते हैं। इस प्रकृति की व्यवस्था में किसी तरह की त्रुटि, विलम्ब, या भ्रष्टाचरण न हो, इसके लिए ‘इन बिल्ट सेफ गार्ड’  सावधानीपूर्वक रखे जा सकते हैं। आशा की जानी चाहिए कि राज्य का वित्त विभाग पूरी संवेदनशीलता के साथ ऐसे किसी तन्त्र को स्थापित करने की पहल करेगा।

बुजुर्गों पर बढ़ते अत्याचारः निवारण कैसे हो ?


हमारे जन-जीवन में आदर्श और आचरण के बीच जितनी गहरी खाई है, उसका शब्दों में बखान करना मुश्किल है। हम लोग तरह-तरह के दिवस मनाते हैं। प्रेम दिवस, मातृ दिवस, पितृ दिवस, पर्यावरण दिवस और न जाने क्या-क्या दिवस। इन दिवसों के पीछे भावनात्मक प्रेरणा और शक्ति कितनी है, यह तो हम व्यावहारिक रूप से जानते ही हैं। इन दिवसों पर छपने और बँटने वाले कार्डों का भी करोड़ों का कारोबार होता है, जिसका तात्पर्य प्रकटतः यही है कि हमने मनुष्य के अन्तर्मन की भावनाओं को भी तिजारत में बदल दिया है। मीडिया भी इन दिवसों पर अपना धन्धा करने से नहीं चूकता। फिर भी यह सन्तोष का विषय है कि समय-समय पर हमारे समाचार पत्र सामाजिक सरोकारों के मुद्दों को सुर्खियों में छापते हैं। पितृ दिवस अभी दो दिन पूर्व ही गया है और उससे कुछ दिन पूर्व समाचार पत्रों में हैल्पेज इन्डिया के अध्ययन की एक रिपोर्ट छपी है, जिसमें कहा गया है कि बुजुर्ग लोग अपनी पुत्र-वधुओं की तुलना में पुत्रों द्वारा अधिक सताये जाते हैं। हैल्पेज इन्डिया बड़ी प्रतिष्ठित समाजसेवी संस्था है और उसके निष्कर्ष विश्वसनीयता के निकट होने चाहिए। रिपोर्ट के अनुसार 31  फीसदी बुजुर्गों को उनकी बहुएं नहीं, बल्कि उनके बेटे दुःखी करते हैं। बुजुर्गों के उत्पीड़न के लिए केवल 23  फीसदी बहुएं जिम्मेदार हैं, जबकि 57  प्रतिशत बेटे अपने नृशंस व्यवहार के लिए उत्तरदायी हैं। हैल्पेज इन्डिया की यह रिपोर्ट 20  शहरों में करीब 6000  बुजुर्गों से साक्षात्कार करके तैयार की गई है। रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में बुजुर्गों को सताने और परेशान करने के कसूरवार उनकी बहुओं से ज्यादा उनके अपने बेटे हैं। हर शहर में यही ट्रेंड देखा गया, जो हैरान करने वाला था। सर्वे में हर इनकम ग्रुप और एजुकेटेड क्लास के लोगों की राय ली गई। सभी में ट्रेंड एक जैसे दिखाई दिए।

बुजुर्गों के लिए मुश्किल भरे शहरों में भोपाल सबसे आगे है, यहां 77.12  फीसदी बुजुर्ग परेशानी झेलते हैं। सबसे बेहतर स्थिति जयपुर की दिखी, जहां यह आंकड़ा सिर्फ 1.67  फीसदी है। यह मुद्रण की त्रुटि भी हो सकती है।

यदि ऐसा नहीं है तो, जयपुर का यह आँकड़ा चौंकाने वाला है, क्योंकि आये दिन माता-पिताओं के उत्पीड़न की जैसी खबरें छपती रहती हैं, उसे दृष्टिगत रखते हुए यह धारणा नितान्त अविश्वसनीय प्रतीत होती है। वैसे भी सैम्पल सर्वे की अपनी सीमाएं होती हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि राज्य में केन्द्र द्वारा पारित माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम-2007  लागू किये जाने और उसके अन्तर्गत नियम बन जाने के बाद इस कानून के तहत बुजुर्ग लोग राहत के लिए आवेदन करने से कतराते हैं, जिसके पीछे उनका यही भय छिपा रहता है कि ऐसा करने से उनके परिवार का अपयश होगा। किन्तु इस तरह की भावना को निर्मूल करने और इस कानून के प्रावधानों का व्यापक प्रचार-प्रसार करने की दिशा में सरकार और सोशल एक्टीविस्ट दोनों ही निष्क्रिय प्रतीत होते हैं। चूँकि अभी इस संबंध में जन-मानस में जागरूकता नहीं आई है, जिला मजिस्ट्रेटों के लिए यह अनिवार्य है कि वे उपनियम (2) और (3)  में उल्लिखित कर्तव्यों और शक्तियों का प्रयोग यह सुनिश्चित करने के लिए करें कि अधिनियम के उपबन्धों का उनके जिले में समुचित रूप से क्रियान्वयन किया जा रहा है। जिला मजिस्ट्रेटों के मुख्य कर्तव्य उक्त प्रावधान के अन्तर्गत निम्न प्रकार हैं -

1. यह सुनिश्चित करना कि जिले के वरिष्ठ नागरिकों का जीवन और सम्पत्ति सुरक्षित है और वे सुरक्षा और गरिमा के साथ जीवन-यापन करने में समर्थ है;

2. भरण पोषण के आवेदनों के यथासमय और उचित निपटान और अधिकरणों के आदेशों के निष्पादन को सुनिश्चित करने की दृष्टि से जिले के भरण पोषण अधिकरणों और भरण पोषण अधिकारियों के कार्य का निरीक्षण और मॉनीटर करना;

3. जिले के वृद्धाश्रमों के कार्यकरण का निरीक्षण और मॉनीटर करना ताकि यह सुनिश्चित किया जाये कि वे इन नियमों और राज्य सरकार के अन्य मार्गदर्शक सिद्धान्तों और आदेशों में अधिकथित मानकों के अनुरूप हैं;

4. अधिनियम के उपबंधों और वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों के कार्यक्रमों के नियमित और व्यापक प्रचार को सुनिश्चित करना;

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सरकार के संबंधित विभाग वरिष्ठ नागरिकों के गरिमापूर्ण जीवन को सुनिश्चित करने के लिए कानून के प्रावधानों की जानकारी समाचार पत्रों और टी.वी. चैनल्स पर डिस्प्ले विज्ञापनों के जरिये घर-घर पहुँचायें और जो वास्तविक हालात हैं उनका सर्वेक्षण भी करायें। गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस दिशा में बहुत कुछ योगदान कर सकती है। आशा है, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, जो न केवल मन से बहुत संवेदनशील हैं, अपितु अपने माता-पिता की सेवा के लिए भी बहुत चर्चित रहे हैं, राज्य में बुजुर्गों के बेहतर जीवन के लिए और अधिक कारगर कदम उठायेंगे।