सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

सम्पूर्णानंद! बेटा, बहुत मुटियाय गए हो!


हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार और विवादास्पद लेखक पांडेय बेचन शर्मा ‘’उग्र’ के नाम से शायद ही कोई हिन्दी भाषी अपरिचित हो। एक ज़माने में उनकी कहानी ‘चाकलेट’  को लेकर बड़ा बबाल मचा था। उनके यथार्थपूर्ण गहरे तक चोट करने वाले सृजन ने अनेक शुद्धतावादी आडम्बरधारी लेखकों को बहुत चौंकाया था। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने तो उनके लेखन को घासलेटी साहित्य कहकर उनकी बड़ी निन्दा की थी। पर हकीकत यह है कि उग्रजी जैसा अक्खड़,  फक्कड़ और धारदार लेखक हिन्दी में दूसरा नहीं हुआ। जिन लोगों ने आत्माराम एण्ड सन्स से प्रकाशित उनकी आत्मकथा ‘’अपनी खबर’ पढ़ी है,  वे समझ सकते हैं कि ऐसी बेबाक जीवनी और वह भी इतनी मर्मस्पर्शी शैली में लिखना बड़े-बड़े दिग्गजों के लिए भी ईष्र्या का विषय हो सकता है।

पांडेय बेचन शर्मा ‘’उग्र’ कुँआरे थे। एक बार जब प्रसिद्ध नेता श्री प्रकाश जी के विवाह करने की खबर उड़ी तो उग्रजी ने अपने एक स्तंभ में बहुत मजेदार पीस लिखा था,  जिसका शीर्षक था:  ‘’मैं उग्र 66 का कुँआरा और सत्तर के श्री प्रकाश नवोढ़ा से ब्याह रचायेंगे’ ।

उग्रजी की लम्बी और संघर्षपूर्ण जीवन-यात्रा इतनी दिलचस्प है कि कितने ही स्तंभ-लेखक उससे निहाल हो सकते हैं। बहरहाल! यह भी एक विचित्र संयोग था कि उग्रजी के पट्ट शिष्य और वरिष्ठ पत्रकार चिरंजीव जोशी सरोज उन्हें जयपुर ले आये। वे तब रामरतन कोचर द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक ’गणराज’ के सम्पादक थे। सरोज जी ने बहुत आदरपूर्वक उन्हें इस अखबार से संबंद्ध किया और एक नियमित स्तंभ उनसे लिखाने लगे। उग्रजी का हर फीचर धमाकेदार होता था। उग्रजी कहीं एक जगह टिक कर रहने वाले नहीं थे। उन्हें कोई बन्धन में नहीं बाँध सकता था। अतः स्वाभाविक रूप से जयपुर में कुछ अर्से रहकर वे शायद दिल्ली या इलाहाबाद चले गये। उस जमाने के सभी महान् साहित्यकार उनके मित्र थे, पर उनसे घबड़ाते भी थे। बहरहाल!

संयोग ऐसा बना कि जिन दिनों डॉ  सम्पूर्णानन्द राजस्थान के गवर्नर थे,  उग्रजी एक बार जयपुर आये। अपने मित्र सम्पूर्णानन्द जी को खबर हुई। जहाँ ठहरे थे,  वहाँ उन्हें लाने के लिए गाड़ी भेजी गई,  किन्तु गाड़ी को रीते ही वापस लौटना पड़ा। उन्होंने गाड़ी में बैठने से इन्कार कर दिया और बाद में रिक्शा में बैठकर राजभवन आये। सम्पूर्णानन्द जी अपने ए.डी.सी. आदि के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही उग्रजी पहुँचे, सम्पूर्णानन्द जी ने बाहर आकर उन्हें बाथ में भर लिया,  उग्रजी ने आव देखा न ताव। भाव-विव्हल होकर मित्र से जबर्दस्त उपहास किया - ‘’सम्पूर्णानन्द! बेटा बहुत मुटियाय गये हो।‘ सम्पूर्णानन्द जी तो बड़े विद्वान् और संजीदा राजपुरूष थे। वे भी बहुत देर तक हँसते रहे। उग्रजी को भीतर शोभन-कक्ष में सादर ले जाया गया। उनका यथोचित सम्मान और सत्कार किया। बनारस से जुड़ी पुरानी बातें होती रहीं। वे राजभवन में कितनी देर रहे,  कहना कठिन है। उग्रजी जैसे अपनी मर्जी के मालिक,  अपने तरीके से मादक द्रव्यों की मस्ती में रहने वाले अलमस्त फक्कड़ साहित्य सर्जक को राजभवन कब रास आने वाला था। जयपुर में उनके एक और गुणग्राहक थे,  राष्ट्रदूत के स्वामी बाबू हजारी लाल शर्मा। हजारी बाबू भी अन्य साहित्यकारों की तरह उनकी भी पैसे-टके से जरूर मदद करते रहे होंगे,  पर उग्रजी की सिजेरियन वाणी का स्वाद उन्होंने भी जरूर चखा होगा।

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