सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

मैथिली बाबू के साथ बासी पूरियों का नाश्ता


मोटे अनुमान से यह घटना कोई छह दशक पहले की रही होगी। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचकर राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत संसद-सदस्य बन चुके थे। मेरी चढ़ती वय थी। उन दिनों कविता लिखने और बड़े कवियों से मिलने का बड़ा चाव रहता था। एक बार दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाया ही इसलिए कि वहाँ जाकर साहित्य की विशिष्ट विभूतियों का दर्शन करूँगा। इत्तफाक की बात थी कि उन दिनों दिल्ली में भगवती चरण वर्मा,  रामधारी सिंह दिनकर,  जोश मलीहाबादी,  जगदीश चन्द्र माथुर जैसी हस्तियाँ देश की राजधानी में थी। इसका श्रेय जाता है तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री वी.वी. केसकर को और मंत्रालय के सचिव एवं ‘कोणार्क’  नाटक के ख्याति प्राप्त लेखक जगदीश चन्द्र माथुर आई.सी.एस. को जिन्होंने आकाशवाणी में प्रोड्यूसर्स का नया काडर बनाया और कार्यक्रमों की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए हिन्दी के प्रसिद्ध लेखकों को उन पदों पर अनुबन्ध के आधार पर पदस्थापित किया। सुमित्रानन्दन पंत,  उदयशंकर भट्ट और ऐसी ही कितनी ही नामचीन  साहित्यिक हस्तियाँ प्रोड्यूसर,  चीफ प्रोड्यूसर और परामर्शदाता के पदों पर नियुक्त की गईं। बहरहाल।

मेरी सबसे पहली भेंट ‘भारत भारती’  के यशस्वी राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्त से ही हुई। वे कदाचित् साउथ एवन्यू में रहते थे। मैथिली बाबू बहुत सरल और सीधे व्यक्ति थे। असाधारण कीर्ति लाभ और एम.पी. बनने से वे टाइट-कॉलर्ड नहीं हुए थे। मैं जैसे ही उनके निवास पर पहुँचा और डोर-बैल बजाई, स्वयं गुप्त जी ने द्वार खोले। मैने अभिवादन स्वरूप उनके चरण-स्पर्श किये और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। ड्राइंग रूम में ही मुझे एक सोफे पर बैठने का संकेत किया। स्वयं भी मेरे पार्श्व में विराजमान हो गये। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया। वे यह जानकर बड़े प्रसन्न थे कि मैं राजस्थान से आया था। काफी देर  तक राजस्थान के सांस्कृतिक वैभव की प्रशंसा करते रहे। फिर मुझसे प्रश्न किया कि क्या मैं कविता रचता हूँ?  मैंने हाँ में उत्तर दिया,  तो उन्होंने कुछ कविताएँ सुनाने का आदेश दिया। मैंने अनुपालना की और अपनी कुछ प्रारंभिक रचनाएं सुनाई। महापुरूषों के स्वभाव के अनुसार उन्होंने मेरी काव्य-प्रतिभा की सराहना की और फिर लगे कहने: अरे मैं तो बातचीत में भूल ही गया,  इतनी दूर से आये हैं,  तो नाश्ता तो कीजिए। पर हमारी एक शर्त है। मैं सुनकर स्तंभित सा हुआ। न जाने क्या शर्त रखेंगे। फिर मुस्कुराते हुए बोले ‘देखिये,  हम आपके सामने एक निजी प्रकृति का रहस्योद्घाटन कर रहे हैं। हम पिछले कई वर्षों से बासी पूरियों का नाश्ता करते हैं। रात को दूध में गूँदे हुए आटे की पूरियाँ शुद्ध घृत में उतरवाते हैं और दूसरे दिन सुबह नाश्ते में खाते हैं। मैं उनकी सरलता देखकर चकित रह गया। थोड़ी देर में सेवक नाश्ता ले आया। पूरियों के साथ कुछ मठड़ियाँ और कैरी का आचार भी था। डाइनिंग टेबिल पर नाश्ता लगा। मैंने राष्ट्रकवि के साथ नाश्ते का आनन्द लिया। एक दुर्लभ अवसर मुझ जैसे नवोदित कवि को प्राप्त हुआ था। मैं कई दिनों तक गर्व से सीना फुलाकर मित्रों को यह रोचक प्रसंग सुनाता रहा। मेरी स्मृतियों में उन बासी पूरियों का आस्वाद आज भी रमा है।

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