शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

बी. एच. यू. का वह बदरंग कवि-सम्मेलन


आज भले ही देश  में विश्व  विद्यालयों की बाढ़ आ रही है,  पर पं. मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित बनारस हिन्दू विश्व  विद्यालय का आज भी कोई सानी नहीं है। लेकिन मैं हैरत में पड़ गया था,  जब मैंने एम.एन.आई.टी. जयपुर के समारोह में कुछ छात्रों से पूछ लिया था कि मालवीय महाराज कौन थे,  और वे निरुत्तर थे। उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में जो गिरावट आई है,  यह उसका एक नमूना था। जो भी हो,  यहां मैं जिस घटना का ज़िक्र कर रहा हूं,   वह तकरीबन 36-37 वर्ष पुरानी है।

कदाचित् 1976  का ही कोई कालखण्ड था। बी. एच. यू. की हीरक जयन्ती बड़े ज़ोर-शोर  से मनाई जा रही थी। इस महोत्सव की श्रृंखला में एक राष्ट्रीय स्तर का कवि सम्मेलन भी आयोजित किया गया था,  जिसमें हिन्दुस्तान के सभी सरनाम कवि,  जिनकी संख्या कोई तीस-चालीस के आस पास होगी,  आमंत्रित किए गए थे। अगर मुझे ठीक से याद है,  तो आमंत्रित कवियों में सबसे अधिक उम्र की  कवयित्री जो उस समय अस्सी के भी पार थीं,  चंद्रमुखी ओझा ‘’सुधा’  थीं और दूसरे नंबर पर डा. राम कुमार वर्मा थे। यह एक संयोग ही था कि इन पंक्तियों के लेखक को भी उस कवि-कुम्भ में आमंत्रित कर लिया गया था। सबसे कम  उम्र के कवि बुद्धिनाथ मिश्र थे,  जिन्हें आगे चलकर गीतकार के रूप में अच्छी प्रसिद्धि मिली थी। मेरी अपनी पात्रता उस आयोजन के प्रतिभागी के रूप में कितनी थी,  कहना कठिन है। पर हकीकत यह है कि उस समय बी. एच. यू. के हिन्दी विभाग में राजस्थान के एक रत्न बूंदी निवासी डा. भोला शंकर व्यास थे। व्यास जी भाषा विज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान् थे। यद्यपि कवि सम्मेलन के समय वे अस्वस्थ चल रहे थे,  पर मेरा खयाल है कि उनकी संस्तुति पर ही मुझे आमंत्रित किया गया होगा। व्यास जी जब तक जीवित रहे,  जब कभी जयपुर आते,  तो मुझे दर्शन दे कर अवश्य  कृतार्थ करते थे। जयपुर में उनके कई निकट संबंधी थे और वे प्रवास में प्रायः एक संबंधी के यहां बापू नगर में ही ठहरते थे। बहरहाल।

उस विशाल कवि सम्मेलन के संयोजक और प्रभारी उस समय के यशस्वी गीतकार और बी. एच. यू. के हिन्दी विभाग में ही कार्यरत डा. शंभू नाथ सिंह थे। मैं बड़े उत्साह के साथ बनारस पहुंचा था। आयोजन स्थल के  मार्ग में एक पान की दुकान थी। वहां मैंने पनवाड़ी से एक बनारसी पान बनाकर देने को कहा। वह हॅंसा और बोला, बाबू,  बाहर से आए दिखते हो,  यहां एक पान नहीं,  पान का जोड़ा दिया जाता है। खैर। पान का जोड़ा खाया। विश्व  विद्यालय के प्रमुख द्वार पर स्वागत कर्ताओं  से माल्यार्पण कराया। उनके सायंकालीन आतिथ्य का सुख प्राप्त कर ठीक समय पर उस सभागार में पहुंचा जहां कवि सम्मेलन होना था। रात्रि के आठ बजते-बजते पूरा सभागार खचाखच भर गया। कवि सम्मेलन की अध्यक्षता कदाचित् डा. राम कुमार वर्मा कर रहे थे। उत्तर प्रदेश  के तत्कालीन जन सम्पर्क निदेशक और प्रसिद्ध कवि ठाकुर प्रसाद सिंह भी उसमें भाग ले रहे थे। बड़े उल्लास और आनन्द के वातावरण में कवि सम्मेलन उर्दू मुशायरों की परम्परा के अनुसरण में सबसे युवा कवि बुद्धिनाथ मिश्र के गीत से प्रारम्भ हुआ। उसके बाद कुछ और कवियों ने काव्य पाठ किया। पर यह क्या, जैसे-जैसे बहुत वरिष्ठ और राष्ट्रीय ख्याति के कवि काव्य पाठ के लिए खड़े हुए,  बड़ी संख्या में छात्र हूटिंग करने लगे और पुरजा़र ध्वनि में शंख  बजाने लगे,  जो वे अपने साथ लाए थे। भले ही कवि सम्मेलन सुबह के चार बजे तक चला,  पर छात्रों के उत्पात ने रंग में भंग कर दिया। बाद में ज्ञात हुआ कि इस सब के पीछे विश्व  विद्यालय के प्राध्यापकों की अपनी राजनीति थी और वे इस आयोजन को फ्लॉप  कराने पर उतारू थे।

मेरी अपनी खिल्ली तो ऐसी उड़ाई गई कि वह घटना भुलाए नहीं भूलती। कवयित्री चंद्रमुखी ओझा ‘’सुधा’  जो मेरी दादी की उम्र की रही होंगी,  बराबर ज़र्दे का पान चबाए जा रही थीं और उनकी मंचीय टिप्पणियों का मैं ही एक मात्र निरीह और धैर्यवान् श्रोता था। उन्होंने बड़े दुराग्रह से मुझे ज़र्दे का पान ठीक उस समय खिला दिया,  जब मेरा टर्न आने वाला था। मैंने इससे पहले कभी ज़र्दे का पान नहीं खाया था। मेरा नाम पुकारे जाने पर मैं जैसे ही माइक के सामने जा कर खड़ा हुआ,  पान की पीक निगल जाने के कारण मेरी खुल्ल-खुल्ल शुरू  हो गई। मैं दो छंद भी नहीं पढ़ पाया कि छात्रों ने मुझे बुरी तरह हूट करना शुरु कर दिया। विवश  होकर मुझे बैठ जाना पड़ा। मैं,  जो उन दिनों राजस्थान के अच्छे मंचीय लोकप्रिय गीतकारों में समझा जाता था और शायद इसीलिए भोला शंकर जी व्यास ने मेरी सिफारिश  की होगी,  बहुत बेआबरू होकर बनारस से लौटा। तसल्ली इतनी ही थी कि मैं तो नाचीज़ था,  पर उस कवि सम्मेलन में बड़े-बड़े महारथियों की प्रतिष्ठा धराशायी हुई थी।

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