रविवार, 16 दिसंबर 2012

अज्ञेय जी के साथ आचमन



    ज़िन्दगी का यह तमाशा  कुछ पहर है ।
             भूल मत यह तो जनाज़े का सफर है ।।

राजस्थान के यशस्वी कवि और साहित्यकार स्वर्गीय प्रकाश  आतुर की ये पंक्तियां  उनकी स्मृति के साथ रह रह कर याद आती हैं। प्रकाश  भाई का रोम-रोम प्रबल जिजीविषा की उत्ताल तरंगों से तरंगायित रहता था। हर समय गर्म जोशी  के साथ मिलना और कहकहे लगाना  उनके व्यक्तित्व की बुनावट का बेहद खूबसूरत हिस्सा था,  पर वे जीवन की क्षण भंगुरता के प्रति भी हर समय सजग रहते थे और कदाचित् यही कारण था कि वे हर दिन को उत्सव की तरह व्यतीत करते थे। वे भोर की पहली किरण के साथ गुनगुनाते उठते थे और शाम की तन्हाइयों को ज़िन्दादिल दोस्तों की सोहबत और उनके साथ होने वाली चुहलबाज़ी और आपान गोष्ठियों के आयोजन से आनन्दमय बना लेते थे।

मैं अकेला ही ऐसा व्यक्ति नहीं हूं,  जिसके साथ प्रकाश  आतुर के अन्तरंग रिश्ते  थे। बाड़मेर से ले कर बांसवाड़ा तक बीसियों सृजनधर्मी उनकी मैत्री की उस परिधि में समाविष्ट थे,  जिसका विस्तार निरन्तर होता ही रहता था।

आज उनके पुण्य स्मरण के समय मुझे एक ऐसे प्रसंग का ध्यान सहसा आ जाता है,  जिसे विस्मृत कर देना मेरे लिए कठिन होगा।

राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के रूप में प्रकाश आतुर के साहित्यिक रिश्तों  का विस्तार बहुत हो गया था और उन्हीं के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण राजस्थान के साहित्यिक बन्धुत्व ने भी बहुत प्रसार पाया था। बड़े-बड़े लेखक उनके आग्रह को टाल नहीं सकते थे । कुछ वर्षों पहले की बात है - माउण्ट आबू में एक लेखक सम्मेलन का आयोजन किया गया था,  जिसमें अज्ञेय जी विशिष्ट  अतिथि थे। अज्ञेय जी का व्यक्तित्व भारतीय लेखक समुदाय में अपूर्व था। उनकी शान  और उनके सृजन की धाक तो थी ही, उनका वाणी संयम भी गज़ब का था। बहुत कम बोलते थे,  बहुत कम खुलते थे। अनेक बार उनके इस संयम को ‘स्नॉबरी’  भी समझा जाता था। उस दिन 26  जून थी। रात्रि को मैंने उन्हें बताया कि आज प्रकाश  जी का जन्म दिन है। वे सुन कर बड़े प्रसन्न हुए। इतनी देर में प्रकाश भाई जी भी आ पहुंचे और अज्ञेय जी से अनुरोध किया कि कुछ समय हमारे साथ रह कर आशीर्वाद प्रदान करें। प्रकाश  जी के कक्ष में आकस्मिक आगन्तुकों के कारण विघ्न हो सकता था,  इस आशंका  से आयोजन मेरे कक्ष में रखा गया। अज्ञेय जी, प्रकाश  भाई,  सावित्री परमार और हमारे आत्मीय मित्र ओम थानवी उस अनौपचारिक जन्मोत्सव में शामिल थे। लोगों को बड़ा आश्चर्य  हुआ, जब हमने बताया कि प्रकाश जी का जन्म दिन होने के कारण अज्ञेय जी ने हमारे आग्रह पर चषक ग्रहण कर हमारी हैसियत में इज़ाफा किया था।

कुछ अरसे पहले अज्ञेय जी के शताब्दी वर्ष में ओम  थानवी जी ने, जो अज्ञेय जी के बहुत निकट रहे थे,  उनके संस्मरणों के दो खंड ’अपने-अपने अज्ञेय’  शीर्षक से प्रकाशित किए थे।  पृथुल कलेवर वाले ये संस्मरण-संकलन दो खंडों में प्रकाशित किए गए हैं। वाणी प्रकाशन द्वारा किए गए इस साहसिक उपक्रम की सराहना निश्चित ही की जानी चाहिए, किन्तु पंद्रह सौ रुपए के मूल्य के प्रत्येक खंड की पहुंच सामान्य पाठक तक न हो कर केवल पुस्तकालयों तक ही हो सकेगी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें