रविवार, 16 दिसंबर 2012

कितने विलक्षण थे वे पेथोलॉजी प्रोफेसर


चिकित्सा शास्त्र में एक ऐसी मनोवैज्ञानिक बीमारी का उल्लेख है,  जिसके रोगी को,  चाहे वह कितना ही भद्रजन हो,  चुपके-से छोटी-मोटी मन पसंद चीज़ चुरा लेने में पराक्रम बोध होता है। कहते हैं, इंग्लैण्ड के एक शहज़ादे को यही रोग था। इसलिए जब कभी वे सेवकों के साथ शॉपिंग   पर जाते थे और किसी प्रिय स्टोर पर खरीदारी करने लगते थे, तो सेवक और सेल्स काउण्टर के प्रभारी इधर-उधर हो जाते थे। इस बीच शहज़ादा नज़र चुरा कर अपनी पसंद की चीज़ें ओवर कोट में डाल लेता था। उनके जाने के बाद जो भी वस्तुएं वहां से मिसिंग पाई जातीं,  उनका बिल राज भवन को भेज दिया जाता था। कुछ ऐसा ही रोग बताया जाता था पेथोलॉजी के एक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रोफेसर को, जो कभी जयपुर में ही निवास करते थे। उनकी असाधारण प्रतिभा का आलम यह था कि उन्होंने पेथोलॉजी के क्षेत्र में शीर्षतम उपाधियां प्राप्त की थीं और श्रेष्ठतम कोटि का शोध कार्य किया था। यही कारण था कि वे सीधे प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किए गए थे। खद्दर का धोती कुर्ता पहनने वाले वे मेडिकल कालेज के एक ही विचित्र प्राध्यापक थे। एक आइ.ए.एस. अधिकारी के ज़रिए मैं उनके निकट सम्पर्क में आया था। उनके साहित्यानुराग के कारण वे मेरे पास अक्सर आते रहते थे। मैं स्तंभित रह गया था,  जब मैंने उन्हें प्राच्य विद्या विदों और संस्कृत विद्वानों के एक सेमिनार में धारा प्रवाह संस्कृत में बोलते देखा। वे सचमुच अपने विषय के अतिरिक्त संस्कृत के उद्भट विद्वान भी थे। उनकी परिकल्पना एलोपैथी चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा हिन्दी के माध्यम से संभव बनाने की थी। प्रयोगात्मक रूप से उन्होंने ‘’प्रज्ञान’  के नाम से एक पत्रिका भी निकाली थी।

टी.पी. भारद्वाज के नाम से विख्यात् ये प्रोफेसर मेडिकल कॉलेज में अपने विभाग के लिए की गई बड़ी खरीद के सिलसिले में वित्तीय अनियमितताओं में फॅंस गए। भ्रष्टाचार विभाग द्वारा धरपकड़ हुई। जांच का लम्बा सिलसिला चला। जैसा कि प्रवाद प्रचलित था,  जांच के दौरान उन्होंने एक बार कुछ कागज़ जांच अधिकारी के हाथ से छीन कर मुंह में चबा लिए और निगल गए। उनका निलम्बन हुआ। कई बरस जांच चलती रही। बेचारे बड़े परेशान थे। अक्सर ऐसा देखा गया है कि इस कोटि के विशिष्ट विद्वान् प्रशासनिक मामलों में शातिर न होने के कारण ऐसे कुचक्रों में फॅंस ही जाते हैं। डा. भारद्वाज ऐसे ही अभागों में थे। लम्बी एन्क्वाइरी के बाद उन्हें कुछ प्रकरणों में दोषी पाया गया और शासन के शीर्ष स्तरों पर पड़ताल के बाद कार्मिक विभाग ने उनके लिए यह दण्ड तज़बीज़ किया कि उन्हें रीडर के पद पर पदावनत कर दिया जाए। इस प्रस्तावित दण्ड पर लोक सेवा आयोग की सहमति भी आवश्यक थी। पत्रावलि आयोग को डिस्पैच होने वाली थी कि डा. भारद्वाज मेरे पास भागे हुए आए। वे हाइकोर्ट जाने की तैयारी मानसिक रूप से कर चुके थे। मैंने उन्हें थोड़ा ठंडे दिमाग से समझाया-‘डा. साहब, आपकी नियुक्ति सीधे प्रोफेसर के पद पर हुई थी। आप लेक्चरर से रीडर और रीडर से प्रोफेसर नहीं बने थे। दण्ड स्वरूप नीचे के पद पर उसे डिमोट किया जाता है,  जो प्रमोशन से ऊपर गया हो। सरकार आपको पदावनत करने की कानून सम्मत स्थिति में नहीं है। वह या तो आपकी सेवाएं समाप्त करे या आपको पुनः प्रोफेसर के पद पर स्थापित करे। डा. भारद्वाज को मेरा तर्क उचित लगा। उन्होंने मामला लोक सेवा आयोग में जाने पर आयोग-अध्यक्ष से भेंट कर अपना तर्क रखा। उनका तर्क विवेक सम्मत था। डा. भारद्वाज की योग्यता का दूसरा व्यक्ति सहज ही उपलब्ध नहीं होने वाला था। अन्ततः कुछ वेतन वृद्धियां खो कर ही सही,  डा. भारद्वाज अपनी  जंग में विजयी रहे।

अनुमान है कि साल-दो साल बाद वे जोधपुर मेडिकल कॉलेज में प्रिन्सिपल हो कर चले गए। एक दिन शाम तक भारद्वाज अपने बंगले पर नहीं लौटे। खोज-बीन शुरु  हुई। उनकी कार कॉलेज के मार्ग में एक पेड़ से टकराई हुई दिखाई दी। नज़ारा हृदय विदारक था। डा. टी.पी. भारद्वाज के प्राण पखेरु उड़ चुके थे। विशेषज्ञों ने निर्णय दिया कि उन्हें फेटल हार्ट अटैक हुआ था। एक विद्वान् प्रोफेसर की यह दुःखान्तिका सभी परिचितों के लिए त्रासद थी।

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