मंगलवार, 29 मई 2012

पुस्तक लोकार्पण की ललक


पुस्तकों का लोकर्पण जिस तेज रफ्तार से हो रहा है, वह शायद एक-डेढ़ दशक पहले नहीं था। लोकार्पण शब्द भी प्रचलन में बहुत विलम्ब से आया है। कदाचित् यह शब्द विख्यात् लेखक अज्ञेय जी ने ही गढ़ा था और शायद विद्यानिवास मिश्र से अपनी कोई कृति रिलीज कराते समय उन्होंने ही पहली बार विमोचन के स्थान पर लोकार्पण जैसे शोभन-शब्द का प्रयोग किया था। बहरलहाल, नई पुस्तकों को समारोहपूर्वक जारी करने के लिए लोकार्पण शब्द ही सर्वत्र प्रचलित है। लोकार्पण की ललक पिछले वर्षों में जितनी बढ़ी है, वह अकल्पनीय थी। आजकल पुस्तकों का लोकार्पण ही नहीं स्मारिकाओं और पोस्टरों का भी लोकर्पण होता है। लोकर्पण कार्यक्रम आयोजित कराने की ललक के पीछे मूलतः द्विपक्षीय प्रचार-लोलुपता ही दृष्टिगोचर होती है। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश लेखक अपनी कृति को लोकार्पित करने के लिए मुख्य अतिथि के रूप में किसी न किसी सत्तासीन राजनेता की ही तलाश करते हैं। इससे लेखक को मुफ्त में थोड़ी बहुत पब्लिसिटी का मिल जाना सुनिश्चित हो जाता है। जो राजनेता या कि राजन्यभाव में जीने वाले भद्रजन पुस्तक का लोकार्पण करते हैं, उन्हें भी कहीं न कहीं मन में यह सुखद प्रतीति होती है कि विभिन्न विषयों के विद्वान्, लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार, कविगण उन्हें इतना मान देते हैं और लोकार्पण की रस्म अदा करने के बाद वे अपने भाषण में जो कुछ भी अटपटे बैन बोलें, वे अखबारों में कहीं न कहीं संक्षेप में छप ही जाते हैं। धीरे-धीरे ऐसे लोकर्पण कर्ताओं के व्यक्तित्व पर विद्यानुरागी होने की मुहर भी लग जाती है। कभी-कभी वे आयोजकों द्वारा तैयार भाषण को भी अपनी बुद्धि का सम्पुट लगाकर पढ़ देते है। धीरे-धीरे उनकी डिमांड बढ़ने लगती है। परिणामतः वे ऐसे आयोजनों में राज-काज या सार्वजनिक सेवा की कीमत पर भी भाग लेते रहते हैं। दरअसल लोकार्पण करने का चस्का ही ऐसा है कि एक बार लगने के बाद छूटना मुश्किल हो जाता है।

लोकार्पण-समारोहों की कई समस्याएं भी हैं। सबसे पहले तो स्थान की समस्या होती है। जो कभी निःशुल्क प्राप्त होने वाले स्थान थे, वहाँ भी आजकल एक हजार से दस हजार रूपये तक की किराया वसूली हो जाती है। चतुर लोगों ने अब अपने प्रभावी जनसंपर्क द्वारा इतना सा मार्ग अवश्य निकाल लिया है कि जिस संस्था के सभागार का वे उपयोग करते हैं, उसके अध्यक्ष या सचिव को मंच पर साथ बिठाकर उस सारे कार्यक्रम को संयुक्त तत्वावधान में घोषित कर देते हैं, इससे उस संस्था का महिमा मंडन भी हो जाता है, जिसका लोकार्पण के मुख्य कार्यक्रम से कोई लेना-देना नहीं होता। किसी प्रकार स्थान की जुगत बैठ जाती है, तो फिर श्रोताओं को जुटाने की समस्या रहती है। ऐसे समय में पुस्तक प्रेमियों के अतिरिक्त रिश्तेदार बड़े काम आते हैं। फिर स्वल्पाहार या मध्यान्ह और रात्रि-भोज का आकर्षण भी भीड़ जुटाने में मदद करता है, बशर्ते कि लेखक और प्रकाशक की सामर्थ्य  इतना खर्चा करने की हो। जिन लेखकों की सामर्थ्य इतने झमेलों में पड़ने की नहीं होती, वे मुख्यमंत्री निवास पर मुख्यमंत्री से या राजभवन में राज्यपाल के कर कमलों से लोकार्पण करा लेते हैं। वहाँ कार्यक्रम की प्रेस कवरेज, फोटोग्राफी और चाय-पान की व्यवस्था भी निःशुल्क हो जाती है। दिक्कत इतनी ही है कि वहाँ इस रस्म अदायगी के समय 15-20 लोगों से ज्यादा को साथ लाने की अनुमति नहीं दी जाती। बहरहाल, लेखक अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार ऐसे सारस्वत-आयोजन करने की ब्यूह रचना कर ही लेते हैं। लेकिन लेखक और लोकार्पणकर्ता की जान तब आफत में आती है, जब किसी पुस्तक में किसी जाति विशेष या सम्प्रदाय विशेष पर कोई अप्रिय टिप्पणी पुस्तक में छप जाती है। तब मानहानि तक के मुकदमों की नौबत हो जाती है। पिछले दशक में हमारे राज्य में ऐसे पाँच-सात कांड हो भी चुके हैं। तब सरकार ने इस आशय का एक राज्यादेश भी निकाला था कि कोई मंत्री या सीनियर ब्यूरोक्रेट किसी पुस्तक का लोकर्पण करने की सहमति तब तक न दे, जब तक किसी विषय-विशेषज्ञ द्वारा संबंधित पुस्तक की पूर्व समीक्षा न करा ली जाय। पर सरकार में आदेश और परिपत्र तो निकलते ही रहते हैं। ऐसे परिपत्रों की कितनी परवाह की जाती है, इससे सभी प्रबुद्धजन वाकिफ हैं।

लोकार्पण समारोहों में मुख्य अतिथियों का समय पर न आना या ऐन वक्त पर असमर्थता प्रकट कर देना भी आयोजकों की प्रतिष्ठा को चोट पहुँचा देता है। पर ऐसे कई हादसे हो जाने पर भी नेताओं से लोकार्पण कराने का चस्का नहीं छूटता। क्या हमारे लेखकों और साहित्यकारों के संगठन यह संकल्प नहीं ले सकते कि वे राजनेताओं से अपनी कृतियों का लोकार्पण नहीं करायेंगे। उन्हें कदाचित् इन कॉलम्स से यह स्मरण कराना प्रासंगिक होगा कि जब अज्ञेय जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार घोषित हुआ था, तो उन्होंने किसी भी राजपुरूष के हाथों पुरस्कार ग्रहण करने से इन्कार कर दिया था। दो-दो बार आमंत्रण पत्र भी ज्ञानपीठ प्रबन्धन ने छपा लिये थे। पर अज्ञेय जी थे कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों से ही पुरस्कार ग्रहण न करने के संकल्प पर डटे रहे। अन्ततः कलकत्ता में समारोह हुआ और दक्षिण की विख्यात् हिन्दी सेवी महिला कमला रत्नम् के हाथों से पुरस्कार ग्रहण किया। काश! हमारे कलमकार अज्ञेय जी के इस उदाहरण से कोई सबक ले सकें।

लोक सेवकों का निंदनीय आचरण


पिछले दिनों मीडिया में यह खबर सुर्खियों में थी कि सरकार के कुछ बड़े नौकरशाह जिनकी सेवा-निवृत्ति हुए अभी बहुत कम समय हुआ है, अपने निवास पर रखी सरकारी स्वामित्व की कीमती वस्तुओं को नहीं लौटा रहे है। इन वस्तुओं में टी.वी., कम्प्यूटर, लैपटॉप, ब्रीफकेस, कीमती पुस्तकें, वैब कैमरा आदि शामिल थे। कार्मिक विभाग और सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा बहुत तकाजे करने और अपनी प्रतिष्ठा पर सार्वजनिक रूप से आँच आने पर ही इन आला अफसरान ने वे वस्तुयें लौटाई हैं। शायद कुछ महाभाग अभी भी आनाकानी कर रहे हैं। सेवाकाल में सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग तो सर्वविदित है, जिनमें बेरहमी से कारों में पैट्रोल फूँकना तो उनके परिजनों तक का मूलभूत अधिकार हो गया है। यहाँ तक कि अपने किसी साथी आला अफसर के माता या पिता का देहावसान हो जाय तो उसके दाह संस्कार में शरीक होने के लिए श्मशान में भी सरकारी गाड़ियों की भीड़ ही नजर आयेगी।

‘माले मुफ्त दिले बेरहम‘ की उक्ति को चरितार्थ करने वाली यह परम्परा नई नहीं है। पुराने मुलाजिम जो जीवित हैं, अभी भी याद करते हैं कि एक विशेष कालखंड में राजभवन से पुरानी बेशकीमती पेन्टिंग्स और एंटीक्स किस प्रकार गायब हुए थे। अजमेर स्थित एक मुख्य सचिव स्तर के समकक्ष अधिकारी की सेवा-निवृत्ति पर उनके शानदार ढंग से सुसज्जित बंगले से मूल्यवान् पलंगों के स्थान पर घटिया किस्म के पलंग जो खटियाओं से बेहतर नहीं थे, रख दिये गये, इसके चर्चे दफ्तर की चार दीवारी से बाहर भी कम नहीं हुए थे।

यह कैसी विचित्र बात है कि लगभग हर आला अफसर सरकारी खर्चे पर ही अखबार मंगाता है, पर उसकी रद्दी के विक्रय से जो कुछ प्राप्त होता है, वह सरकारी खजाने में जमा नहीं होता। फिल्म और फैशन मैगजीन्स तक का आनन्द सरकारी खर्च पर ही उठाया जाता है।

सेवा-निवृत्ति पर सरकारी वस्तुओं को न लौटाने की आदत का आरोप मात्र आला अफसरों पर लगाना उचित नहीं है। अन्य सेवाओं के अधिकारी भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। आठ-दस हजार रूपये के मूल्य तक की तो अनेक वस्तुएं विभागाध्यक्ष के विशेषाधिकार से राइट ऑफ ही कराली जाती हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि जब बेईमानी और दुराचरण इस गिरी हुई सीमा तक है, तो उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार को पूर्ण रूप से रोकना तो चट्टानों पर गुलाब खिलाने की कल्पना करना ही है। फिर भी यह सन्तोष का विषय है कि भ्रष्टाचार-उन्मूलन की दिशा में इन दिनों केन्द्र सरकार और राज्य सरकार दोनों ही स्तरों पर प्रयत्न किये जा रहे हैं।

आशा की जानी चाहिए कि नई पीढ़ी के जो युवा अखिल भारतीय प्रशासनिक और राज्य प्रशासनिक सेवाओं तथा इतर उच्च स्तरीय सेवाओं में आ रहे हैं, वे ईमानदार और निष्ठावान लोकसेवक के रूप में ऐसे उदाहरण बनेंगे जो अन्यों के लिए अनुकरणीय हो।

गुरुवार, 10 मई 2012

राजभवन को नई बंगिमा देंगी मारग्रेट अल्वा



आबू रेजीडेन्सी से राज्य की राजधानी जयपुर में राजभवन तक की राजसी यात्रा बड़ी घटनापूर्ण और दिलचस्प रही है। पीछे मुड़कर देखें, तो कुछ अपवादों को छोड़कर राजस्थान के राजभवन को एक से बढ़कर एक ख्यातनाम और कद्दावर विभूतियों ने विशिष्ट गरिमा प्रदान की है। सरदार गुरूमुख निहाल सिंह, डॉ  सम्पूर्णानन्द, डी.पी. चट्टोपाध्याय और ओ.पी. मेहरा जैसे कुछ नाम तो लम्बा समय गुजर जाने के बाद भी लोगों की जुबान पर हैं।

 राजस्थान के राजभवन को ही यह ऐतिहासिक महत्व मिला कि वहाँ कार्यशील पहली महिला राज्यपाल प्रतिभा पाटील ने भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति बनने का गौरव प्राप्त किया। उनके बाद दूसरी महिला राज्यपाल प्रभा राव बनीं, पर दुर्भाग्य से वे बहुत जल्दी ही स्मृति शेष हो गईं। भारत के पूर्व विदेश सचिव रहे डॉ  एस. के. सिंह भी राजस्थान के राज्यपाल के रूप में बहुत अल्प समय तक ही अपनी सेवाएं देकर गोलोकवासी हो गये। उनके निधन के बाद तकनीकी दृष्टि से राजस्थान में राज्यपाल का पद लम्बे समय तक रिक्त ही रहा और पंजाब के राज्यपाल शिवराज पाटिल यहाँ के भी कार्यवाहक राज्यपाल बने रहे।

अन्ततः अब वह शुभ मुहूर्त आया है, जब आज से दो दिन बाद देश की विख्यात् राजनेता, सांसद और प्रखर बुद्धिजीवी महिला मारग्रेट अल्वा राजस्थान की तीसरी महिला राज्यपाल होंगी। वे इससे पूर्व उत्तराखंड की राज्यपाल रह चुकी हैं।

मारग्रेट अल्वा की उपलब्धियों की यदि इनवैन्ट्री तैयार की जाय, तो वह कई पृष्ठ भर लेगी। कांग्रेस पार्टी की जनरल सैक्रेट्री रहने और तेजस्वी सांसद के रूप में पाँच पारियाँ (1974-2004) खेल चुकने के साथ-साथ वे केन्द्र सरकार में चार बार महत्वपूर्ण महकमों की राज्यमंत्री रहीं। एक सांसद के रूप में उन्होंने महिला-कल्याण के कई कानून पास कराने में अपनी प्रभावी भूमिका अदा की। महिला सशक्तिकरण संबंधी नीतियों का ब्लू प्रिन्ट बनाने और उसे केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा स्वीकार कराये जाने की प्रक्रिया में उनका मूल्यवान योगदान रहा। केवल देश में में ही नहीं, समुद्र पार भी उन्होंने मानव-स्वतन्त्रता और महिला-हितों के अनुष्ठानों में अपनी बौद्धिक आहुति दी। दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति ने तो उन्हें वहाँ के स्वाधीनता संग्राम में रंगभेद के खिलाफ लड़ाई लड़ने में अपना समर्थन देने के लिए राष्ट्रीय सम्मान प्रदान किया।

मारग्रेट अल्वा ने चढ़ती वय में ही एक एडवोकेट के रूप में विशिष्ट पहचान बनाली थी। सुखद आश्चर्य तो यह है कि कानूनी लड़ाई के पेशे में रहते हुए उन्होंने तैल चित्र बनाने जैसी ललितकला में और गृह-सज्जा के क्षेत्र में भी हस्तक्षेप किया। वे अपनी सुरूचि पूर्ण जीवन शैली और सौन्दर्य बोध के लिए भी सुपरिचित रही हैं।

मंगलोर में 70 वर्ष पूर्व जन्मी मारग्रेट असाधारण रूप से साहसी और बौद्धिक दृष्टि से प्रखर धारदार रही हैं। नवम्बर सन् 2008 में उन्होंने जब अपनी पार्टी पर ही कांग्रेस सीटों के लिए टिकिटों के क्रय-विक्रय का आरोप लगाया, तो उन्हें अपनी स्पष्टवादिता की भारी कीमत चुकानी पड़ी और कांग्रेस पार्टी की जनरल सैक्रेट्री के पद से तथा सैन्ट्रल इलैक्शन कमेटी और महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा तथा मिजोरम राज्यों के लिए कांग्रेस पार्टी की इन्चार्ज होने के पद से भी मुक्त होना पड़ा। वे संसद की अनेक समितियों में रहने के साथ-साथ राज्य सभा के सभापति के पैनल में भी रहीं। संक्षेप में, मारग्रेट अल्वा देश की एक ऐसी अग्रणी जन-नेता रही, जिनका बहुआयामी योगदान स्वतन्त्र भारत के इतिहास में विशिष्ट सम्मान के साथ रेखांकित किया जायेगा।

राज्यपालों की भूमिका आज के राजनीतिक परिवेश और विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण हो गई हैं। आशा की जानी चाहिए कि अपने सुदीर्घ, परिपक्व और बहुआयामी अनुभव से वे राजस्थान के राजभवन को एक नूतन भंगिमा और गरिमा प्रदान करेंगी।

परमाणु वैज्ञानिक काकोड़कर की जयपुर यात्रा



राज्य की राजधानी जयपुर में विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और विशिष्ट कोटि के विद्यालयों की संख्या जिस गति से बढ़ रही है, इस गति से यहाँ अकादमिक गतिविधियाँ और उनमें भाग लेने के लिए आने वाले राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानों के आवागमन की संख्या भी बढ़ रही है। कदाचित् कोई माह ही ऐसा जाता होगा, जब यहाँ ख्यातनाम विद्वान्, वैज्ञानिक और समाज विज्ञानी अपने व्याख्यानों से ज्ञान-पिपासुओं को तृप्त न करते हों। पर खेद जनक स्थिति यह है कि जहाँ राज्य शासन औसत दर्जे के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले तथाकथित विशिष्टजनों को राजकीय अतिथि बनाता रहता है और उसका प्रोटोकोल विभाग उन्हें निर्धारित प्रावधानों के अनुसार शासकीय शिष्टाचार से सराबोर कर देता है, वहाँ देश के रक्षा तन्त्र से जुड़े शिखर वैज्ञानिक उसकी दृष्टि से ओझल हो जाते हैं। इसका एक ताजा उदाहरण एटोमिक इनर्जी कमीशन के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में सौर ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष और परमाणु ऊर्जा आयोग के सदस्य डॉ अनिल काकोड़कर की जयपुर-यात्रा है। एक वैज्ञानिक के रूप में काकोड़कर की जो उपलब्धियाँ हैं, उनका अनुमान इसी से किया जा सकता है कि वे पद्म  विभूषण अलंकरण से सम्मानित हो चुके हैं और देश-विदेशों के अनेक शीर्ष कोटि के विश्वविद्यालय उन्हें मानद डी.एस-सी. की उपाधि से विभूषित कर चुके हैं। वे निहायत सरल प्रकृति के व्यक्ति हैं और ‘विद्या ददाति विनयम्’की उक्ति को साक्षात् चरितार्थ करते हैं। इसीलिए उन्होंने सरकार के सामान्य प्रशासन विभाग की उस उपेक्षा का भी कोई ख्याल नहीं किया, जो गत एक मई को उनके साथ हुई। काकोड़कर जयपुर के एक प्रतिष्ठित विद्यालय में उसके संस्थापक द्वारा अपने दिवंगत पुत्र की स्मृति में प्रायोजित और वैज्ञानिक दृष्टिकोण सोसाइटी द्वारा संचालित विज्ञान-संचार पुरस्कार जिसकी राशि एक लाख रूपये है, ग्रहण करने आये थे।

भारत सरकार के आदेशानुसार काकोड़कर जैड श्रेणी की सुरक्षा के अधिकारी हैं, जो उन्हें अनिवार्यतः राज्य सरकार को उनके प्रवास के दौरान उपलब्ध कराई जानी चाहिए थी। प्रोटोकोल सुविधाएं तो वैसे भी उन्हें देय थी। किन्तु ऐसा कुछ नहीं किया गया। आश्चर्य तो यह है कि चार दिन पूर्व केन्द्र सरकार के मुंबई स्थित परमाणु ऊर्जा विभाग के उपशासन सचिव द्वारा राज्य के मुख्य सचिव को फैक्स द्वारा न केवल काकोड़कर का पूरा कार्यक्रम भेजा गया था, अपितु यह स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया था कि काकोड़कर को पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था और प्रोटोकोल सुविधाएं उपलब्ध कराई जायें। जैसा कि हर त्रुटि के समय होता है, जो भूल होती है, उसे एक दूसरे पर डालने की कोशिश की जाती है। यह सचमुच चिन्ताजनक है कि यह अप्रिय घटना मुख्य सचिव सी.के. मैथ्यू के कार्यकाल के दौरान हुई। मैथ्यू स्वयं बड़े विद्यानुरागी और श्रेष्ठ उपन्यास लेखक हैं।

इस प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि गत वर्ष सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. यशपाल जब यही दीपक राठौड़ स्मृति विज्ञान-संचार सम्मान लेने और बाद में द्वारकानिधि ट्रस्ट का प्रज्ञा पुरस्कार लेने और व्याख्यान देने आये थे, तो प्राप्त सूचनाओं के अनुसार उन्हें भी ये सुविधाएं कदाचित् नहीं दी गई थीं। पर काकोड़कर की यात्रा तो इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण थी कि उन्होंने इस अवसर पर भारत विज्ञान कांग्रेस के अनुकरण में गठित राजस्थान विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की घोषणा भी की थी। काकोड़कर ने अपने व्याख्यान में भारत की ऊर्जा समस्या के समाधान के लिए अणु ऊर्जा और सौर-ऊर्जा दोनों के विकास के लिए भारत की परिस्थितियों के अनुरूप तकनीक के क्षिप्रगामी विकास की आवश्यकता प्रतिपादित की थी।

यह वांछनीय होगा कि डॉ अनिल काकोड़कर को सुरक्षा-व्यवस्था और प्रोटोकोल सुविधाएं मुहैया कराने में जो चूक हुई है, उसके लिए राज्य प्रशासन राजस्थान की गौरवमयी अतिथि-परम्परा के अनुसार क्षमा-याचना करे।