पुस्तकों का लोकर्पण जिस तेज रफ्तार से हो रहा है, वह शायद एक-डेढ़ दशक पहले नहीं था। लोकार्पण शब्द भी प्रचलन में बहुत विलम्ब से आया है। कदाचित् यह शब्द विख्यात् लेखक अज्ञेय जी ने ही गढ़ा था और शायद विद्यानिवास मिश्र से अपनी कोई कृति रिलीज कराते समय उन्होंने ही पहली बार विमोचन के स्थान पर लोकार्पण जैसे शोभन-शब्द का प्रयोग किया था। बहरलहाल, नई पुस्तकों को समारोहपूर्वक जारी करने के लिए लोकार्पण शब्द ही सर्वत्र प्रचलित है। लोकार्पण की ललक पिछले वर्षों में जितनी बढ़ी है, वह अकल्पनीय थी। आजकल पुस्तकों का लोकार्पण ही नहीं स्मारिकाओं और पोस्टरों का भी लोकर्पण होता है। लोकर्पण कार्यक्रम आयोजित कराने की ललक के पीछे मूलतः द्विपक्षीय प्रचार-लोलुपता ही दृष्टिगोचर होती है। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश लेखक अपनी कृति को लोकार्पित करने के लिए मुख्य अतिथि के रूप में किसी न किसी सत्तासीन राजनेता की ही तलाश करते हैं। इससे लेखक को मुफ्त में थोड़ी बहुत पब्लिसिटी का मिल जाना सुनिश्चित हो जाता है। जो राजनेता या कि राजन्यभाव में जीने वाले भद्रजन पुस्तक का लोकार्पण करते हैं, उन्हें भी कहीं न कहीं मन में यह सुखद प्रतीति होती है कि विभिन्न विषयों के विद्वान्, लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार, कविगण उन्हें इतना मान देते हैं और लोकार्पण की रस्म अदा करने के बाद वे अपने भाषण में जो कुछ भी अटपटे बैन बोलें, वे अखबारों में कहीं न कहीं संक्षेप में छप ही जाते हैं। धीरे-धीरे ऐसे लोकर्पण कर्ताओं के व्यक्तित्व पर विद्यानुरागी होने की मुहर भी लग जाती है। कभी-कभी वे आयोजकों द्वारा तैयार भाषण को भी अपनी बुद्धि का सम्पुट लगाकर पढ़ देते है। धीरे-धीरे उनकी डिमांड बढ़ने लगती है। परिणामतः वे ऐसे आयोजनों में राज-काज या सार्वजनिक सेवा की कीमत पर भी भाग लेते रहते हैं। दरअसल लोकार्पण करने का चस्का ही ऐसा है कि एक बार लगने के बाद छूटना मुश्किल हो जाता है।
लोकार्पण-समारोहों की कई समस्याएं भी हैं। सबसे पहले तो स्थान की समस्या होती है। जो कभी निःशुल्क प्राप्त होने वाले स्थान थे, वहाँ भी आजकल एक हजार से दस हजार रूपये तक की किराया वसूली हो जाती है। चतुर लोगों ने अब अपने प्रभावी जनसंपर्क द्वारा इतना सा मार्ग अवश्य निकाल लिया है कि जिस संस्था के सभागार का वे उपयोग करते हैं, उसके अध्यक्ष या सचिव को मंच पर साथ बिठाकर उस सारे कार्यक्रम को संयुक्त तत्वावधान में घोषित कर देते हैं, इससे उस संस्था का महिमा मंडन भी हो जाता है, जिसका लोकार्पण के मुख्य कार्यक्रम से कोई लेना-देना नहीं होता। किसी प्रकार स्थान की जुगत बैठ जाती है, तो फिर श्रोताओं को जुटाने की समस्या रहती है। ऐसे समय में पुस्तक प्रेमियों के अतिरिक्त रिश्तेदार बड़े काम आते हैं। फिर स्वल्पाहार या मध्यान्ह और रात्रि-भोज का आकर्षण भी भीड़ जुटाने में मदद करता है, बशर्ते कि लेखक और प्रकाशक की सामर्थ्य इतना खर्चा करने की हो। जिन लेखकों की सामर्थ्य इतने झमेलों में पड़ने की नहीं होती, वे मुख्यमंत्री निवास पर मुख्यमंत्री से या राजभवन में राज्यपाल के कर कमलों से लोकार्पण करा लेते हैं। वहाँ कार्यक्रम की प्रेस कवरेज, फोटोग्राफी और चाय-पान की व्यवस्था भी निःशुल्क हो जाती है। दिक्कत इतनी ही है कि वहाँ इस रस्म अदायगी के समय 15-20 लोगों से ज्यादा को साथ लाने की अनुमति नहीं दी जाती। बहरहाल, लेखक अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार ऐसे सारस्वत-आयोजन करने की ब्यूह रचना कर ही लेते हैं। लेकिन लेखक और लोकार्पणकर्ता की जान तब आफत में आती है, जब किसी पुस्तक में किसी जाति विशेष या सम्प्रदाय विशेष पर कोई अप्रिय टिप्पणी पुस्तक में छप जाती है। तब मानहानि तक के मुकदमों की नौबत हो जाती है। पिछले दशक में हमारे राज्य में ऐसे पाँच-सात कांड हो भी चुके हैं। तब सरकार ने इस आशय का एक राज्यादेश भी निकाला था कि कोई मंत्री या सीनियर ब्यूरोक्रेट किसी पुस्तक का लोकर्पण करने की सहमति तब तक न दे, जब तक किसी विषय-विशेषज्ञ द्वारा संबंधित पुस्तक की पूर्व समीक्षा न करा ली जाय। पर सरकार में आदेश और परिपत्र तो निकलते ही रहते हैं। ऐसे परिपत्रों की कितनी परवाह की जाती है, इससे सभी प्रबुद्धजन वाकिफ हैं।
लोकार्पण समारोहों में मुख्य अतिथियों का समय पर न आना या ऐन वक्त पर असमर्थता प्रकट कर देना भी आयोजकों की प्रतिष्ठा को चोट पहुँचा देता है। पर ऐसे कई हादसे हो जाने पर भी नेताओं से लोकार्पण कराने का चस्का नहीं छूटता। क्या हमारे लेखकों और साहित्यकारों के संगठन यह संकल्प नहीं ले सकते कि वे राजनेताओं से अपनी कृतियों का लोकार्पण नहीं करायेंगे। उन्हें कदाचित् इन कॉलम्स से यह स्मरण कराना प्रासंगिक होगा कि जब अज्ञेय जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार घोषित हुआ था, तो उन्होंने किसी भी राजपुरूष के हाथों पुरस्कार ग्रहण करने से इन्कार कर दिया था। दो-दो बार आमंत्रण पत्र भी ज्ञानपीठ प्रबन्धन ने छपा लिये थे। पर अज्ञेय जी थे कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों से ही पुरस्कार ग्रहण न करने के संकल्प पर डटे रहे। अन्ततः कलकत्ता में समारोह हुआ और दक्षिण की विख्यात् हिन्दी सेवी महिला कमला रत्नम् के हाथों से पुरस्कार ग्रहण किया। काश! हमारे कलमकार अज्ञेय जी के इस उदाहरण से कोई सबक ले सकें।