कामिल बुल्के के कोश के अनुसार डिजायर शब्द का अर्थ है - अभिलाषा, इच्छा, चाहना, और कामना, जबकि वैब्स्टर डिक्शनरी के अनुसार डिजायर शब्द के उक्त अर्थों के अतिरिक्त काम-बुभुक्षा (सैक्सुअल एपीटाइट) भी है। कदाचित् इसीलिए सुधीर कक्कड़ के उपन्यास ‘कामयोगी‘ का अंग्रेजी अनुवाद ‘द एसेटिक ऑफ डिजायर’ के नाम से छपा है। संयोग से हमारे मंत्री, विधायक और सांसद इस शब्द को दोनों ही संदर्भों में सार्थक कर रहे हैं। मीडिया साक्षी है।
इन पंक्तियों के लेखक ने इस शब्द के राजनीतिक अर्थ को पहली बार लगभग 48 वर्ष पूर्व तब सुना था, जब वह आयुर्वेद विभाग के तत्कालीन निदेशक प्रेमशंकर जी से एक वैद्यराज के स्थानान्तरण की सिफारिश के लिए ही गया था। वहाँ उन्होंने इधर-उधर की चर्चा करते हुए अपने निजी सहायक को विशेष निर्देश दिये थे कि अजमेर चलने से पूर्व वह सारी डिजायर्स की एक फाइल तैयार कर ले। मुझे यह आदेश सुनकर कुछ अचम्भा-सा हुआ कि डिजायर जैसी अमूर्त अभिव्यक्ति को फाइल में कैसे बांधा जा सकता है। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने आयुर्वेद निदेशक से इस आदेश का मन्तव्य पूछ ही लिया। तब प्रेमशंकर जी ने बताया कि मंत्री गण जिस वैद्य या उपवैद्य का स्थानान्तरण स्थान विशेष पर चाहते हैं, उस अभिलाषा को आदेश के रूप में लिखकर भेजते रहते हैं, उसके लिए ही डिजायर शब्द प्रचलन में आया है। उसके बाद से तबादलों के मौसम में इसका महात्म्य पूरी प्रखरता से उजागर होता रहा है।
हजारों की संख्या में अध्यापक, पटवारी, वैद्य, आदि से लेकर छोटे-मोटे अधिकारी तक अभीष्ट स्थान पर अपनी पदस्थापना के लिए अपने अंचल के विधायकों, मंत्रियों और सांसदों से यह बहुविज्ञापित इच्छा-पत्र लेकर संबंधित विभागाध्यक्षों और सचिवों के कार्यालयों के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। किसकी इच्छा-पूर्ति होती है और किसकी नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इच्छा-पत्र भेजने वाला राजनेता कितना पावरफुल है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि हर कर्मचारी की पहुँच मंत्रियों, विधायकों और सांसदों तक नहीं होती, इसलिए इच्छा-पत्र प्राप्त करने के लिए बिचौलियों, दलालों और राजनेताओं के चमचों की मदद जरूरी हो जाती है। इच्छा-पत्र उपलब्ध कराने की इस मदद का महनताना कैश और काइन्ड दोनों में ही हो सकता है। इन दिनों इच्छा-पत्रों और तबादलों को लेकर राजनीतिक कार्यकर्ताओं में और यहाँ तक कि मंत्रियों के बीच भी जो सिर-फुटव्वल हो रही है, वह अब जन-जन को ज्ञात है और धन्य है हमारा मीडिया जो प्रतिदिन ऐसी खबरों से जन-मानस का मनोरंजन करता है।
सारी स्थिति का विश्लेषण करें, तो प्रश्न यह उठता है कि सुखाड़िया शासन में उत्पन्न हुई यह डिजायर प्रणाली अब तक कैसे चल रही है। क्या कभी किसी सत्तासीन के मस्तिष्क में यह विचार नहीं आया कि व्यक्ति कोई भी हो, किसी भी जात-पांत या सम्प्रदाय का हो, वह अपना कार्य पूरी दक्षता के साथ करे, केवल इसे सुनिश्चित किया जाय। किसी अकर्मण्य कर्मचारी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित करने से क्या उसमें सुधार आ जायेगा और क्या वह मेहनत से अपना काम करने लगेगा? एक भ्रष्टाचारी कर्मचारी या अधिकारी को कहीं भी पदस्थापित किया जाय, उसके आचरण में कोई कायापलट होगा, यह अपेक्षा करना निरर्थक है। हमारे यहाँ चुनावी वर्ष में तो आचार-संहिता लागू होने से पूर्व ऐसे-ऐसे इच्छा-पत्र क्रियान्वित होते हैं कि देख और सुनकर आश्चर्य होता है।
दर असल जब तक सरकारी विभागों में नौकरियों के लिए भर्ती की प्रक्रिया बहुत कड़ी और पारदर्शी नहीं होगी, चयनित कर्मचारियों का पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं होगा और फिर उसकी तैनाती सही स्थान पर नहीं होगी, कार्मिक व्यवस्था से जुड़ी समस्याएं दैत्याकार स्वरूप लेती ही रहेंगी।
ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जब राजनीतिक दलों के कार्यालयों में कार्यरत कर्मचारियों की सन्तानें और रिश्तेदार नितान्त अयोग्य होते हुए भी राज्य सेवाओं के पदों पर चुन लिये गये हैं। राजनेताओं और उनकी सहधर्मिणियों की सेवा में रत रहने वाले कर्मचारी अपनी इस निकटता का पूरा लाभ उठाते हैं। सरकार के विभिन्न विभागो में नियुक्त मझले दर्जे के अधिकारी भी विभागाध्यक्ष या विभागीय सचिव का कृपा-प्रसाद प्राप्त कर अपनी सन्तति को राज्य-सेवा में प्रवेश कराने में सफल हो जाते हैं। कितने ही कनिष्ठ अधिकारी एक-दो ज्योतिषियों और तान्त्रिकों को अपने साथ रखकर आला अफसरों और नेताओं से अपने निजी संबंध उस तापमान पर बना लेते हैं, जहाँ मनोरथ-सिद्धि सहज हो जाती है। राजस्थान लोक सेवा आयोग का तो जिस तरह राजनीतिकरण हुआ हैं, उसके बारे में तो जितना कहा जाए उतना ही कम है। हालात जो भी और जैसे भी हैं, वर्तमान शासन से यह अपेक्षा करना अनुचित नहीं होगा कि कम से कम इस ‘डिजायर-प्रणाली’ को तो अविलम्ब समाप्त कर दे और विभिन्न वर्गों के राज्यसेवियों के लिए एक कारगर और व्यावहारिक स्थानान्तरण नीति का निर्माण अविलम्ब करे।