मंगलवार, 12 जून 2012

अथ डिज़ायर महात्म्य



कामिल बुल्के के कोश के अनुसार डिजायर शब्द का अर्थ है - अभिलाषा, इच्छा, चाहना, और कामना, जबकि वैब्स्टर डिक्शनरी के अनुसार डिजायर शब्द के उक्त अर्थों के अतिरिक्त काम-बुभुक्षा (सैक्सुअल एपीटाइट) भी है। कदाचित् इसीलिए सुधीर कक्कड़ के उपन्यास ‘कामयोगी‘ का अंग्रेजी अनुवाद ‘द एसेटिक ऑफ डिजायर’ के नाम से छपा है। संयोग से हमारे मंत्री, विधायक और सांसद इस शब्द को दोनों ही संदर्भों में सार्थक कर रहे हैं। मीडिया साक्षी है।

इन पंक्तियों के लेखक ने इस शब्द के राजनीतिक अर्थ को पहली बार लगभग 48 वर्ष पूर्व तब सुना था, जब वह आयुर्वेद विभाग के तत्कालीन निदेशक प्रेमशंकर जी से एक वैद्यराज के स्थानान्तरण की सिफारिश के लिए ही गया था। वहाँ उन्होंने इधर-उधर की चर्चा करते हुए अपने निजी सहायक को विशेष निर्देश दिये थे कि अजमेर चलने से पूर्व वह सारी डिजायर्स की एक फाइल तैयार कर ले। मुझे यह आदेश सुनकर कुछ अचम्भा-सा हुआ कि डिजायर जैसी अमूर्त  अभिव्यक्ति को फाइल में कैसे बांधा जा सकता है। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने आयुर्वेद निदेशक से इस आदेश का मन्तव्य पूछ ही लिया। तब प्रेमशंकर जी ने बताया कि मंत्री गण जिस वैद्य या उपवैद्य का स्थानान्तरण स्थान विशेष पर चाहते हैं,  उस अभिलाषा को आदेश के रूप में लिखकर भेजते रहते हैं,  उसके लिए ही डिजायर शब्द प्रचलन में आया है। उसके बाद से तबादलों के मौसम में इसका महात्म्य पूरी प्रखरता से उजागर होता रहा है।

हजारों की संख्या में अध्यापक, पटवारी, वैद्य, आदि से लेकर छोटे-मोटे अधिकारी तक अभीष्ट स्थान पर अपनी पदस्थापना के लिए अपने अंचल के विधायकों, मंत्रियों और सांसदों से यह बहुविज्ञापित इच्छा-पत्र लेकर संबंधित विभागाध्यक्षों और सचिवों के कार्यालयों के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। किसकी इच्छा-पूर्ति होती है और किसकी नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इच्छा-पत्र भेजने वाला राजनेता कितना पावरफुल है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि हर कर्मचारी की पहुँच मंत्रियों, विधायकों और सांसदों तक नहीं होती,  इसलिए इच्छा-पत्र प्राप्त करने के लिए बिचौलियों, दलालों और राजनेताओं के चमचों की मदद जरूरी हो जाती है। इच्छा-पत्र उपलब्ध कराने की इस मदद का महनताना  कैश और काइन्ड दोनों में ही हो सकता है। इन दिनों इच्छा-पत्रों और तबादलों को लेकर राजनीतिक कार्यकर्ताओं में और यहाँ तक कि मंत्रियों के बीच भी जो सिर-फुटव्वल हो रही है, वह अब जन-जन को ज्ञात है और धन्य है हमारा मीडिया जो प्रतिदिन ऐसी खबरों से जन-मानस का मनोरंजन करता है।

सारी स्थिति का विश्लेषण करें,  तो प्रश्न यह उठता है कि सुखाड़िया शासन में उत्पन्न हुई यह डिजायर प्रणाली अब तक कैसे चल रही है। क्या कभी किसी सत्तासीन के मस्तिष्क में यह विचार नहीं आया कि व्यक्ति कोई भी हो, किसी भी जात-पांत या सम्प्रदाय का हो, वह अपना कार्य पूरी दक्षता के साथ करे,  केवल इसे सुनिश्चित किया जाय। किसी अकर्मण्य कर्मचारी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित करने से क्या उसमें सुधार आ जायेगा और क्या वह मेहनत से अपना काम करने लगेगा?  एक भ्रष्टाचारी कर्मचारी या अधिकारी को कहीं भी पदस्थापित किया जाय,  उसके आचरण में कोई कायापलट होगा, यह अपेक्षा करना निरर्थक है। हमारे यहाँ चुनावी वर्ष में तो आचार-संहिता लागू होने  से पूर्व ऐसे-ऐसे इच्छा-पत्र क्रियान्वित होते हैं कि देख और सुनकर आश्चर्य होता है।

दर असल जब तक सरकारी विभागों में नौकरियों के लिए भर्ती की प्रक्रिया बहुत कड़ी और पारदर्शी नहीं होगी, चयनित कर्मचारियों का पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं होगा और फिर उसकी तैनाती सही स्थान पर नहीं होगी, कार्मिक व्यवस्था से जुड़ी समस्याएं दैत्याकार स्वरूप लेती ही रहेंगी।

ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जब राजनीतिक दलों के कार्यालयों में कार्यरत कर्मचारियों की सन्तानें और रिश्तेदार नितान्त अयोग्य होते हुए भी राज्य सेवाओं के पदों पर चुन लिये गये हैं। राजनेताओं और उनकी सहधर्मिणियों की सेवा में रत रहने वाले कर्मचारी अपनी इस निकटता का पूरा लाभ उठाते हैं। सरकार के विभिन्न विभागो में नियुक्त मझले दर्जे के अधिकारी भी विभागाध्यक्ष या विभागीय सचिव का कृपा-प्रसाद प्राप्त कर अपनी सन्तति को राज्य-सेवा में प्रवेश कराने में सफल हो जाते हैं। कितने ही कनिष्ठ अधिकारी एक-दो ज्योतिषियों और तान्त्रिकों को अपने साथ रखकर आला अफसरों और नेताओं से अपने निजी संबंध उस तापमान पर बना लेते हैं, जहाँ मनोरथ-सिद्धि सहज हो जाती है। राजस्थान लोक सेवा आयोग का तो जिस तरह राजनीतिकरण हुआ हैं, उसके बारे में तो जितना कहा जाए उतना ही कम है। हालात जो भी और जैसे भी हैं, वर्तमान शासन से यह अपेक्षा करना अनुचित नहीं होगा कि कम से कम इस ‘डिजायर-प्रणाली’ को तो अविलम्ब समाप्त कर दे और विभिन्न वर्गों के राज्यसेवियों के लिए एक कारगर और व्यावहारिक स्थानान्तरण नीति का निर्माण अविलम्ब करे।

सोमवार, 4 जून 2012

एक खुला ख़त मैडम मारग्रेट अल्वा के नाम



परम आदरणीया मैडम मारग्रेट अल्वा जी,

एक प्रबुद्ध नागरिक और विनम्र शब्द-शिल्पी के नाते मुझे यह व्यक्त करते हुए बहुत सुखद प्रतीति होती है कि आप जैसी विदुषी और जन-जीवन की नब्ज पहचानने वाली महीयसी ने राजस्थान के राज्यपाल का पद-भार ग्रहण किया है। संसद में लम्बी पारियाँ खेलने और केन्द्र सरकार में विभिन्न मंत्रालयों की राज्यमंत्री के रूप में दीर्घ अनुभव से सम्पन्न आपकी शख्सियत अपने आप में बहुत विलक्षण और विशिष्ट रही है। इसलिए आपसे यह अपेक्षा करना स्वाभाविक ही है कि आप राजभवन में सादगी,  संवेदनशीलता और कर्त्तव्य परायणता की ऐसी परम्पराएं स्थापित करेंगी जो अनुसरणीय होंगी।

आपको अप्रिय न लगे तो कहना चाहूँगा कि हमारे देश के राज्यपालों के राजभवन तत्वतः राजसी वृद्ध-निवास ही सिद्ध हो रहे हैं। ये राजभवन अपनी लोक-सेवा तथा भव्यता के लिए नगण्य और अपनी चाकचक्य के लिए अधिक जाने जाते है। जहाँ तक राजस्थान के राज्यपालों का संबंध है,  कुछ अपवादों को छोड़कर यहाँ श्रेष्ठतम बौद्धिक सम्पदा से सम्पन्न राज्यपाल रहे हैं। किन्तु आपकी सूचनार्थ एक राज्यपाल ऐसे भी आये जिन्होंने अपने पदार्पण के साथ ही मर्सीडीज गाड़ी की मांग कर डाली। तब समूचा प्रदेश घोर अकाल की चपेट में था,  पर ऐसे में भी लगभग हठधर्मिता के साथ वे मर्सिडीज प्राप्त करके ही रहे। उसमें बैठने का सुख आप चाहेंगी, तो आपको भी सुलभ होगा ही,  पर अन्य विकल्प भी सामने हैं। हमारे प्रातः स्मरणीय प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा राज्यपालों की शाही जीवन शैली पर की गई यह टिप्पणी दृष्टव्य है, जो उन्होंने 28 जून, 1958 को सभी राज्यपालों को लिखे अपने पत्र में की थी। उन्होंने कहा था कि जिस ढंग से हमारे गवर्नर्स बाहर निकलते हैं और जिस शान-शौकत से उनके आगे-पीछे गाड़ियाँ चलती हैं,  राजमार्गों पर ट्रेफिक को रोक दिया जाता है, उससे लगता है जैसे वे कोई जंग लड़ने जा रहे हों। नेहरू का कथन था कि राजभवनों में ए.डी.सी. राज्यपालों को सारे नियम, कानून और प्रोटोकोल समझाते हैं। लगता है जैसे वे पूर्णतः उन पर निर्भर हों। विदेशों का हवाला देते हुए उन्होंने अपने पत्र में कहा कि स्कैंडेवियन देशों के महाराजा भी हमारे राज्यपालों की तुलना में अधिक सादगी से रहते हैं। नेहरूजी के पत्र का सार यही था कि एक राजपाल का सर्वोपरि कर्त्तव्य अपने राज्य में ‘गुडगवर्नेंस’ को सुनिश्चित करना और यह देखना है कि वे आम लोगों से अधिक से अधिक मिलें और इस धारणा को विलोपित करें कि गवर्नर कोई सामान्य जन न होकर विशिष्ट विभूति है। इस दृष्टि से नेहरू जी के वे पत्र परम पठनीय हैं।

माननीया,  आप एक ऐसे राज्य की राज्यपाल हैं,  जहाँ सामन्ती परम्पराएं आज भी टूटी नहीं हैं और सत्ता के केन्द्र चाटुकारों और दरबारियों से घिरे रहते हैं। इस प्रदेश में आज भी गरीबों,  वंचितों, शोषितों और आर्थिक दृष्टि से निर्बल वर्गों का बड़ा जन-समुदाय है। फिर भी यहाँ के राज्यपाल पुराने अंग्रेजी लाट साहबों की तरह गर्मियों में माउन्ट आबू में अपना प्रवास करते रहे हैं, जबकि राजभवन आज पूर्णरूप से एयर-कन्डीशन्ड है। करोड़ों रूपयों की धनराशि आबू में ग्रीष्म गुजारने के इस इम्पीरियल शौक पर बर्बाद हो चुकी है। पर हमारी संवेदनाएं भोंथरी हो चुकी है।

राज्यपाल होने के नाते आप विभिन्न विश्वविद्यालयों की कुलाधिपति भी हैं, जहाँ उच्चतर शिक्षा का स्तर तो गिरता ही जा रहा है, शिक्षकों के सदाचरण का भी इतना क्षरण हो चुका है कि कुछ मानसिक रोगी प्रोफेसर्स अपनी छात्राओं को पीएच.डी. दिलाने के लिए कथित रूप से उनसे दैहिक समर्पण की मांग भी कर बैठते बताये जाते हैं। मीडिया में छपी खबरें इसकी साक्षी हैं। इसलिए बहुत जरूरी है कि आप हालात का प्रामाणिक जायजा लें और ऐसे कारगर कदम उठायें, जिनसे हमारे विश्वविद्यालयों में ज्ञान की उपासना का लक्ष्य सर्वोपरि हो। आप चूँकि राज्याध्यक्ष की भूमिका में हैं, आप राज्य के ख्यातनाम रहे शोध संस्थानों, प्राचीन पांडुलिपि भंडारों और हमारी विरासत को सहेज कर रखने वाले संग्रहालयों और प्राचीन स्मारकों की सुरक्षा पर भी शासन को सावचेत करें, जो अब तक बहुत उपेक्षित रहे हैं।

मुझे याद पड़ता है कि अमरीका के दिवंगत राष्ट्रपति कैनेड़ी अपने कार्यकाल में समय-समय पर व्हाइट हाउस में नोबेल पुरस्कार विजेता विद्वानों और वैज्ञानिकों को दावत पर आमंत्रित कर उनके साथ विचार-विमर्श करते थे। इससे प्रेरणा लें, तो आप भी समय-समय पर राज्य के विशिष्ट बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों आदि को आमंत्रित कर उनके साथ राज्य में लोक-हित से जुड़े मुद्दों पर विचार-विमर्श कर ‘गुड गवर्नेन्स’ में अपना योगदान कर सकती हैं।

क्षमा चाहता हूँ कि मैंने अपने पत्र में आपको ‘महामहिम’  के विशेषण से संबोधित नहीं किया, चूँकि मैं मानता हूँ कि ये अलंकरण भी आज के हमारे लोकतान्त्रिक मूल्यों को दृष्टिगत रखते हुए अप्रासंगिक हो गये हैं। मैंने हमारे समाचार-पत्र के कॉलम्स के माध्यम से आपको यह खुला पत्र लिखने की धृष्टता इसलिए की कि राजभवन को राज्यपाल के विशिष्ट ध्यानाकर्षण के लिए जो पत्र भेजे जाते हैं, प्रायः उनकी अवज्ञा होती रही है या बहुत कनिष्ठ स्तर के किसी अधिकारी द्वारा एक रूटीन और जड़ता भरा जवाब भेज दिया जाता है। उम्मीद है कि आपकी कार्यशैली में ऐसी विसंगति नहीं होगी। विश्वास है कि आप इस पत्रकारीय पत्र को पढ़ेंगी और मुझसे कोई अविनय हुई हो तो क्षमा करेंगी।

भवदीय,

डॉ मनोहर प्रभाकर