पिछले दिनों इंग्लैण्ड के प्राइम मिनिस्टर
डेविड कैम्रून ने अपनी भारत यात्रा के दौरान जलियांवाला बाग जाकर शहीदों को
श्रद्धांजलि अर्पित की थी और जो कुछ उन्होंने कहा था उसका सार यह था कि इंग्लैण्ड
के इतिहास में इसे एक बुरी घटना माना जायेगा। कैम्रून ने यद्यपि क्षमायाचना यह
कहकर नहीं की कि वह हत्याकाण्ड उनके जन्म से पूर्व हुई दुखद घटना थी। जो भी हो,
इंग्लैण्ड
के प्राइम मिनिस्टर के इस कथन से यकायक अलवर जिले के एक कृषक प्रधान गांव नीमूचाणा
का स्मरण हो आता है जहां अंग्रेजों और महाराजा की फौज ने मिलकर भारी संख्या में
आदमी, औरतों और पशुओं को मौत के घाट उतार दिया था।
महात्मा गांधी ने इस हत्याकांड पर टिप्पणी करते
हुए कहा था कि - यह जलियांवाला काण्ड से भी भीषण दुखान्तिका थी। उन्होंने इसे ‘डबल
डायरशाही‘ की संज्ञा दी थी। विद्यार्थी जी ने इस कृषक आंदोलन और उसमें हुए हत्याकांड
के खिलाफ न केवल समाचार ही प्रकाशित किये बल्कि लेख और कविताएं भी प्रकाषित कीं।
25 मई, 1925 को एक ‘भुक्तभोगी‘ की कष्ट कथा को
उन्होंने विस्तार से प्रकाशित किया। इस कष्ट कथा का जो आलेख ‘प्रताप‘
में
प्रकाशित हुआ था, उसकी निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं:-
‘‘अलवर राज्य के अन्तर्गत एक गांव नीमूचाणा है।
वहां के निवासियों के साथ जो घोर अत्याचार व नर-पिशाच कर्म हुआ है, उसको सुनकर
किसके रोमान्च खड़े नहीं होंगे? किसका ऐसा पाषाण हृदय है जो उस कथा को
सुन विदीर्ण न होगा? मैं 14 तारीख के पहिले तीन चार लाख का आसामी
था। मेरे कुटुम्ब में अठारह औरत, मर्द व बाल बच्चे थे। परन्तु आज हमारे
अलवर के शासकों की कृपा से हम सिर्फ दो भाई शेष हैं। एक अलवर की जेल में है,
दूसरा
सिर्फ मैं हूं जो दुर्भाग्य से बच गया हूं। बाकी सब मशीनगन, तोपों व फौजी
सिपाहियों की बन्दूकों के निशाने बन गये, कुछ आग में जल गये। अलवर राज्य ने जो
अन्यायपूर्ण कानून बनाये हैं वे दुनिया के किसी राज्य में आज तक प्रचलित नहीं हुए।‘‘
इतना ही नहीं विद्यार्थी जी ने 6 जुलाई
1925 के अंक में ‘‘फुलझड़िया‘‘ शीर्षक से
नीमूचाणा काण्ड पर एक कविता भी प्रकाशित की।
राजस्थान के स्वाधीनता सेनानियों से विद्यार्थी
जी का जीवन्त सम्पर्क था। सन् 1922 में जब मध्यप्रदेश और राजस्थान में सामाजिक एवं राजनैतिक चेतना
जागृत करने के उद्देश्य से दिल्ली के मारवाड़ी पुस्तकालय में एक बैठक बुलाई गई और ‘राजपूताना
मध्यभारत सभा‘ का गठन किया गया तो विद्यार्थी जी इस संस्था के
सक्रिय सदस्य बनाये गये। राजस्थान में उस समय जो राजनैतिक पत्र निकल रहे थे,
वे
भी विद्यार्थी जी से निरन्तर प्रेरणा और मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। 1923 में जब
विद्यार्थी जी को अंग्रेज विरोधी राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत लेखन के लिए जेल हुई तो
अजमेर से प्रकाशित ‘तरूण राजस्थान साप्ताहिक‘ ने
उनके बंदीगृह गमन पर एक कविता प्रकाशित की। इस ऐतिहासिक कविता की कुछ पंक्तियां इस
प्रकार हैं:-
जिसके ‘प्रताप‘ ने हिन्दी को
अपने प्रताप से चमकाया।
जिसका स्वातन्त्रय उलूकों को फूटी आंखों न कभी
भाया।
जिसकी स्मृति भर ग्राम्य सरों के पद्मों को हुलसाती थी।
जिसके भय से अत्याचारी को सुख की नींद न आती
थी।
उसका बंदीगृह जाना भी कुछ नूतन रंग जमायेगा।
दिनकर रजनी अंचल में भी स्वातन्त्रय प्रभा
छिटकायेगा।।
यह दुखद प्रसंग है कि राजस्थान के स्वाधीनता
संग्राम के इतिहास लेखकों और पत्रकारिता के इतिहास ग्रंथों की रचना करने वाले
विद्वानों ने विद्यार्थी जी के इस योगदान का उल्लेख विस्तार से नहीं किया है। आज
के समय में जबकि पत्रकारिता निरन्तर व्यवसाय होती जा रही है और इस क्षेत्र में भी
पीत पत्रकारिता करने वाले अवांछनीय तत्व जुड़ गये हैं, ऐसे में गणेश शंकर
विद्यार्थी के संपादकीय आदर्श हमारा
मार्गदर्शन करें, इसके लिए विभिन्न पत्रकार संगठनों और स्वाधीनता
सेनानी संगठनों द्वारा उनकी जयन्ती और पुण्यतिथि पर संगोष्ठियों और परिचर्चाओं का
आयोजन किया जाना चाहिए।