सोमवार, 4 जून 2012

एक खुला ख़त मैडम मारग्रेट अल्वा के नाम



परम आदरणीया मैडम मारग्रेट अल्वा जी,

एक प्रबुद्ध नागरिक और विनम्र शब्द-शिल्पी के नाते मुझे यह व्यक्त करते हुए बहुत सुखद प्रतीति होती है कि आप जैसी विदुषी और जन-जीवन की नब्ज पहचानने वाली महीयसी ने राजस्थान के राज्यपाल का पद-भार ग्रहण किया है। संसद में लम्बी पारियाँ खेलने और केन्द्र सरकार में विभिन्न मंत्रालयों की राज्यमंत्री के रूप में दीर्घ अनुभव से सम्पन्न आपकी शख्सियत अपने आप में बहुत विलक्षण और विशिष्ट रही है। इसलिए आपसे यह अपेक्षा करना स्वाभाविक ही है कि आप राजभवन में सादगी,  संवेदनशीलता और कर्त्तव्य परायणता की ऐसी परम्पराएं स्थापित करेंगी जो अनुसरणीय होंगी।

आपको अप्रिय न लगे तो कहना चाहूँगा कि हमारे देश के राज्यपालों के राजभवन तत्वतः राजसी वृद्ध-निवास ही सिद्ध हो रहे हैं। ये राजभवन अपनी लोक-सेवा तथा भव्यता के लिए नगण्य और अपनी चाकचक्य के लिए अधिक जाने जाते है। जहाँ तक राजस्थान के राज्यपालों का संबंध है,  कुछ अपवादों को छोड़कर यहाँ श्रेष्ठतम बौद्धिक सम्पदा से सम्पन्न राज्यपाल रहे हैं। किन्तु आपकी सूचनार्थ एक राज्यपाल ऐसे भी आये जिन्होंने अपने पदार्पण के साथ ही मर्सीडीज गाड़ी की मांग कर डाली। तब समूचा प्रदेश घोर अकाल की चपेट में था,  पर ऐसे में भी लगभग हठधर्मिता के साथ वे मर्सिडीज प्राप्त करके ही रहे। उसमें बैठने का सुख आप चाहेंगी, तो आपको भी सुलभ होगा ही,  पर अन्य विकल्प भी सामने हैं। हमारे प्रातः स्मरणीय प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा राज्यपालों की शाही जीवन शैली पर की गई यह टिप्पणी दृष्टव्य है, जो उन्होंने 28 जून, 1958 को सभी राज्यपालों को लिखे अपने पत्र में की थी। उन्होंने कहा था कि जिस ढंग से हमारे गवर्नर्स बाहर निकलते हैं और जिस शान-शौकत से उनके आगे-पीछे गाड़ियाँ चलती हैं,  राजमार्गों पर ट्रेफिक को रोक दिया जाता है, उससे लगता है जैसे वे कोई जंग लड़ने जा रहे हों। नेहरू का कथन था कि राजभवनों में ए.डी.सी. राज्यपालों को सारे नियम, कानून और प्रोटोकोल समझाते हैं। लगता है जैसे वे पूर्णतः उन पर निर्भर हों। विदेशों का हवाला देते हुए उन्होंने अपने पत्र में कहा कि स्कैंडेवियन देशों के महाराजा भी हमारे राज्यपालों की तुलना में अधिक सादगी से रहते हैं। नेहरूजी के पत्र का सार यही था कि एक राजपाल का सर्वोपरि कर्त्तव्य अपने राज्य में ‘गुडगवर्नेंस’ को सुनिश्चित करना और यह देखना है कि वे आम लोगों से अधिक से अधिक मिलें और इस धारणा को विलोपित करें कि गवर्नर कोई सामान्य जन न होकर विशिष्ट विभूति है। इस दृष्टि से नेहरू जी के वे पत्र परम पठनीय हैं।

माननीया,  आप एक ऐसे राज्य की राज्यपाल हैं,  जहाँ सामन्ती परम्पराएं आज भी टूटी नहीं हैं और सत्ता के केन्द्र चाटुकारों और दरबारियों से घिरे रहते हैं। इस प्रदेश में आज भी गरीबों,  वंचितों, शोषितों और आर्थिक दृष्टि से निर्बल वर्गों का बड़ा जन-समुदाय है। फिर भी यहाँ के राज्यपाल पुराने अंग्रेजी लाट साहबों की तरह गर्मियों में माउन्ट आबू में अपना प्रवास करते रहे हैं, जबकि राजभवन आज पूर्णरूप से एयर-कन्डीशन्ड है। करोड़ों रूपयों की धनराशि आबू में ग्रीष्म गुजारने के इस इम्पीरियल शौक पर बर्बाद हो चुकी है। पर हमारी संवेदनाएं भोंथरी हो चुकी है।

राज्यपाल होने के नाते आप विभिन्न विश्वविद्यालयों की कुलाधिपति भी हैं, जहाँ उच्चतर शिक्षा का स्तर तो गिरता ही जा रहा है, शिक्षकों के सदाचरण का भी इतना क्षरण हो चुका है कि कुछ मानसिक रोगी प्रोफेसर्स अपनी छात्राओं को पीएच.डी. दिलाने के लिए कथित रूप से उनसे दैहिक समर्पण की मांग भी कर बैठते बताये जाते हैं। मीडिया में छपी खबरें इसकी साक्षी हैं। इसलिए बहुत जरूरी है कि आप हालात का प्रामाणिक जायजा लें और ऐसे कारगर कदम उठायें, जिनसे हमारे विश्वविद्यालयों में ज्ञान की उपासना का लक्ष्य सर्वोपरि हो। आप चूँकि राज्याध्यक्ष की भूमिका में हैं, आप राज्य के ख्यातनाम रहे शोध संस्थानों, प्राचीन पांडुलिपि भंडारों और हमारी विरासत को सहेज कर रखने वाले संग्रहालयों और प्राचीन स्मारकों की सुरक्षा पर भी शासन को सावचेत करें, जो अब तक बहुत उपेक्षित रहे हैं।

मुझे याद पड़ता है कि अमरीका के दिवंगत राष्ट्रपति कैनेड़ी अपने कार्यकाल में समय-समय पर व्हाइट हाउस में नोबेल पुरस्कार विजेता विद्वानों और वैज्ञानिकों को दावत पर आमंत्रित कर उनके साथ विचार-विमर्श करते थे। इससे प्रेरणा लें, तो आप भी समय-समय पर राज्य के विशिष्ट बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों आदि को आमंत्रित कर उनके साथ राज्य में लोक-हित से जुड़े मुद्दों पर विचार-विमर्श कर ‘गुड गवर्नेन्स’ में अपना योगदान कर सकती हैं।

क्षमा चाहता हूँ कि मैंने अपने पत्र में आपको ‘महामहिम’  के विशेषण से संबोधित नहीं किया, चूँकि मैं मानता हूँ कि ये अलंकरण भी आज के हमारे लोकतान्त्रिक मूल्यों को दृष्टिगत रखते हुए अप्रासंगिक हो गये हैं। मैंने हमारे समाचार-पत्र के कॉलम्स के माध्यम से आपको यह खुला पत्र लिखने की धृष्टता इसलिए की कि राजभवन को राज्यपाल के विशिष्ट ध्यानाकर्षण के लिए जो पत्र भेजे जाते हैं, प्रायः उनकी अवज्ञा होती रही है या बहुत कनिष्ठ स्तर के किसी अधिकारी द्वारा एक रूटीन और जड़ता भरा जवाब भेज दिया जाता है। उम्मीद है कि आपकी कार्यशैली में ऐसी विसंगति नहीं होगी। विश्वास है कि आप इस पत्रकारीय पत्र को पढ़ेंगी और मुझसे कोई अविनय हुई हो तो क्षमा करेंगी।

भवदीय,

डॉ मनोहर प्रभाकर


1 टिप्पणी:

  1. आदरणीय प्रभाकर जी ने बहुत सही लिखा है | लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडम्बना ही यही है कि अभी तक उसकी रग-रग में सामंतवाद का खून भरा हुआ है | लोकतंत्र जीवन का सबसे बड़ा मूल्य है | उसके लिए उदाहरण प्रस्तुत करने पड़ते हैं |आजादी प्राप्ति के आस-पास के दिनों के लोग उसके अर्थ और मूल्य को जानते थे , अब तो नेताओं में एक ही होड़ है कि कैसे सफ़ेद कुर्ते-पाजामे में वे एक नव-सामंत के रूप में दिखें |वे दुनिया में भोग करने के लिए आये हैं न कि किसी तरह के त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए | फिर चापलूसों और स्वार्थियों की ज़मातें उनको सामंत बना देती हैं | बधाई स्वीकार करें |

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