हिन्दी के पुरोधा पत्रकार और महान् स्वतंत्रता
सेनानी शहीद, गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890
को उत्तरप्रदेश के एक गांव में हुआ था और
मात्र 41 वर्ष की आयु में वे 25 मार्च, 1931 को शहीद हो गये थे। ‘विद्यार्थी‘
जी
ने अन्य क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों की भांति अंग्रेजों की गोलियां
नहीं खायी थीं, वे अपने ही भाइयों के हाथों शहीद हुए थे। उनका
आत्मोत्सर्ग गांधी जी और इन्दिरा गांधी की तरह का था। सन् 1931 में जब कानपुर में
साम्प्रदायिक दंगे भड़के तो वे रात-दिन दंगाग्रस्त क्षेत्रों में अमन-चैन स्थापित
करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाते रहे। एक दिन इन्हीं दंगाइयों ने उनका
प्राण हरण कर लिया।
‘विद्यार्थी‘ जी ने समूचे
हिन्दी भाषी राज्यों में आजादी की अलख जगाने और राजनैतिक चेतना जागृत करने का
महान् उपक्रम अपने तेजस्वी पत्र ‘प्रताप‘ के जरिये किया
था। ‘प्रताप‘ की तेजस्वी भूमिका की कल्पना विद्यार्थी जी के
इस कथन से की जा सकती है, जो उन्होंने अपने पत्र के पहले अंक में
प्रकाशित किया था। उन्होंने कहा था कि ‘किसी
की प्रशंसा या अप्रशंसा, किसी की प्रसन्नता या अप्रसन्नता,
किसी
की घुड़की या धमकी हमें सुमार्ग से विचलित न कर सकेगी। साम्प्रदायिक और व्यक्तिगत
झगड़ों से ‘प्रताप‘ सदा अलग रहने की कोशिश करेगा, उसका जन्म किसी विशे ष सभा, संस्था,
व्यक्ति
या मत के पालन-पोषण के लिए या रक्षण अथवा विरोध के लिए नहीं हुआ है, किन्तु
उसका मत स्वतंत्र विचार और उसका धर्म सत्य होगा, जिस दिन हमारी
आत्मा इतनी निर्बल हो जाय कि हम अपने प्यारे आदर्शों से डिग जायं, जान-बूझकर असत्य
के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करे और उदारता, स्वतंत्रता और
निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरूता दिखाये, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन
होगा और हम चाहते हैं कि हमारे नैतिक मूल्यों के पतन के साथ ही साथ हमारे जीवन का
अन्त हो जाय।‘
‘विद्यार्थी‘ जी ने जब तक वे
जीये, अपने इसी संपादकीय धर्म का पालन किया और वे असत्य और अन्याय के
विरूद्ध अपनी लेखनी से निरन्तर प्रहार करते रहे, बल्कि बहुत कम
लोगों को ज्ञात है कि राजस्थान में जब सामन्तों और जागीरदारों के अत्याचार अपनी
पराकाष्ठा पर थे और जन-जीवन पूरी तरह त्रस्त था, विद्यार्थी जी
ने पत्र के जरिये यहां के जन-आंदोलनों को प्रबल समर्थन दिया था। सन् 1922 में जब ‘लाग-बाग‘
और ‘बेगार‘
के
खिलाफ बिजोलिया के किसानों ने विद्रोह का झण्डा उठाया और भारत के स्वाधीनता आंदोलन
के इतिहास में प्रसिद्ध बिजोलिया का कृषक
आंदोलन चलाया था तो विद्यार्थी जी ने न केवल उस आंदोलन को समर्थन ही दिया, अपितु
उन्होंने यहां के राजनैतिक कार्यकर्ताओं से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखकर उनका मार्गदर्शन भी किया। 14 जून, 1920
को उन्होंने ‘बिजोलिया पर काले बादल‘ शीर्षक अपनी टिप्पणी
में बिजोलिया के जागीरदार के क्रूर-कर्मों की न केवल भर्त्सना की, अपितु
महाराणा मेवाड़ को भी ललकारा और उन्हें अपने सुप्त गौरव का स्मरण इन शब्दों में
करायाः-
‘हम अत्यन्त नम्रता के साथ एक बात बिजोलिया के
किसानों के सांसारिक प्रभु श्रीमान् महाराना साहब से कह देना चाहते हैं और वह यह
है कि ईश्वर ने उन्हें एक बड़ा काम सौंपा था, उन्हें एक बड़े
राज्यवंश में जन्माया था, ऐसे राजवंश में जिसके राजा देश और देश के लोगों के लिए अपने प्राणों की बलि देना अपना
धर्म मानते थे, परन्तु उन्होंने उस धर्म को नहीं निभाया जो
जन्म और कर्तव्य के कारण उनको निभाना चाहिये था, पुरानी रूढ़ियों
और निरंकुशता की आदतों ने उनकी दृष्टि के सामने उन लोगों को पिसते और कुचलते ही
रहने दिया, जिनकी रक्षा का भार उन पर था। यह साधारण बात
नहीं। एक मीठा विश्वास है जिसके वशीभूत
होकर निरंकुश लोग निरंकुशता करते
हैं, दूसरों के सिरों पर चलते हैं और सदा यही समझते हैं कि हमारा क्या बिगड़ेगा?’
बिजोलिया ही नहीं, आगे चलकर बेगूं
और सिरोही में जो किसान आन्दोलन हुए, उनके समर्थन में भी विद्यार्थी जी ने
अपने पत्र में समाचार और टिप्पणियां प्रकाशित कीं।
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