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सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

डबल डायरशाही का शिकार नीमूचाणा



पिछले दिनों इंग्लैण्ड के प्राइम मिनिस्टर डेविड कैम्रून ने अपनी भारत यात्रा के दौरान जलियांवाला बाग जाकर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी और जो कुछ उन्होंने कहा था उसका सार यह था कि इंग्लैण्ड के इतिहास में इसे एक बुरी घटना माना जायेगा। कैम्रून ने यद्यपि क्षमायाचना यह कहकर नहीं की कि वह हत्याकाण्ड उनके जन्म से पूर्व हुई दुखद घटना थी। जो भी हो, इंग्लैण्ड के प्राइम मिनिस्टर के इस कथन से यकायक अलवर जिले के एक कृषक प्रधान गांव नीमूचाणा का स्मरण हो आता है जहां अंग्रेजों और महाराजा की फौज ने मिलकर भारी संख्या में आदमी, औरतों और पशुओं को मौत के घाट उतार दिया था।

महात्मा गांधी ने इस हत्याकांड पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि - यह जलियांवाला काण्ड से भी भीषण दुखान्तिका थी। उन्होंने इसे डबल डायरशाहीकी संज्ञा दी थी। विद्यार्थी जी ने इस कृषक आंदोलन और उसमें हुए हत्याकांड के खिलाफ न केवल समाचार ही प्रकाशित किये बल्कि लेख और कविताएं भी प्रकाषित कीं। 25 मई, 1925 को एक भुक्तभोगीकी कष्ट कथा को उन्होंने विस्तार से प्रकाशित किया। इस कष्ट कथा का जो आलेख प्रतापमें प्रकाशित हुआ था, उसकी निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं:-

‘‘अलवर राज्य के अन्तर्गत एक गांव नीमूचाणा है। वहां के निवासियों के साथ जो घोर अत्याचार व नर-पिशाच  कर्म हुआ है, उसको सुनकर किसके रोमान्च खड़े नहीं होंगे? किसका ऐसा पाषाण हृदय है जो उस कथा को सुन विदीर्ण न होगा? मैं 14 तारीख के पहिले तीन चार लाख का आसामी था। मेरे कुटुम्ब में अठारह औरत, मर्द व बाल बच्चे थे। परन्तु आज हमारे अलवर के शासकों की कृपा से हम सिर्फ दो भाई शेष हैं। एक अलवर की जेल में है, दूसरा सिर्फ मैं हूं जो दुर्भाग्य से बच गया हूं। बाकी सब मशीनगन, तोपों व फौजी सिपाहियों की बन्दूकों के निशाने बन गये, कुछ आग में जल गये। अलवर राज्य ने जो अन्यायपूर्ण कानून बनाये हैं वे दुनिया के किसी राज्य में आज तक प्रचलित नहीं हुए।‘‘  इतना ही नहीं विद्यार्थी जी ने 6 जुलाई 1925 के अंक में ‘‘फुलझड़िया‘‘ शीर्षक से नीमूचाणा काण्ड पर एक कविता भी प्रकाशित की।

राजस्थान के स्वाधीनता सेनानियों से विद्यार्थी जी का जीवन्त सम्पर्क था। सन् 1922 में जब मध्यप्रदेश  और राजस्थान में सामाजिक एवं राजनैतिक चेतना जागृत करने के उद्देश्य से दिल्ली के मारवाड़ी पुस्तकालय में एक बैठक बुलाई गई और राजपूताना मध्यभारत सभाका गठन किया गया तो विद्यार्थी जी इस संस्था के सक्रिय सदस्य बनाये गये। राजस्थान में उस समय जो राजनैतिक पत्र निकल रहे थे, वे भी विद्यार्थी जी से निरन्तर प्रेरणा और मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। 1923 में जब विद्यार्थी जी को अंग्रेज विरोधी राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत लेखन के लिए जेल हुई तो अजमेर से प्रकाशित तरूण राजस्थान साप्ताहिकने उनके बंदीगृह गमन पर एक कविता प्रकाशित की। इस ऐतिहासिक कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:-

जिसके प्रतापने हिन्दी को अपने प्रताप से चमकाया।
जिसका स्वातन्त्रय उलूकों को फूटी आंखों न कभी भाया।
जिसकी स्मृति भर ग्राम्य सरों के पद्मों  को हुलसाती थी।
जिसके भय से अत्याचारी को सुख की नींद न आती थी।
उसका बंदीगृह जाना भी कुछ नूतन रंग जमायेगा।
दिनकर रजनी अंचल में भी स्वातन्त्रय प्रभा छिटकायेगा।।

यह दुखद प्रसंग है कि राजस्थान के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास लेखकों और पत्रकारिता के इतिहास ग्रंथों की रचना करने वाले विद्वानों ने विद्यार्थी जी के इस योगदान का उल्लेख विस्तार से नहीं किया है। आज के समय में जबकि पत्रकारिता निरन्तर व्यवसाय होती जा रही है और इस क्षेत्र में भी पीत पत्रकारिता करने वाले अवांछनीय तत्व जुड़ गये हैं, ऐसे में गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादकीय आदर्श  हमारा मार्गदर्शन करें, इसके लिए विभिन्न पत्रकार संगठनों और स्वाधीनता सेनानी संगठनों द्वारा उनकी जयन्ती और पुण्यतिथि पर संगोष्ठियों और परिचर्चाओं का आयोजन किया जाना चाहिए।

विद्यार्थी जी की लौह लेखनी और राजस्थान


              
हिन्दी के पुरोधा पत्रकार और महान् स्वतंत्रता सेनानी शहीद, गणेश  शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को उत्तरप्रदेश  के एक गांव में हुआ था और मात्र 41 वर्ष की आयु में वे 25 मार्च, 1931 को शहीद हो गये थे। विद्यार्थीजी ने अन्य क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों की भांति अंग्रेजों की गोलियां नहीं खायी थीं, वे अपने ही भाइयों के हाथों शहीद हुए थे। उनका आत्मोत्सर्ग गांधी जी और इन्दिरा गांधी की तरह का था। सन् 1931 में जब कानपुर में साम्प्रदायिक दंगे भड़के तो वे रात-दिन दंगाग्रस्त क्षेत्रों में अमन-चैन स्थापित करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाते रहे। एक दिन इन्हीं दंगाइयों ने उनका प्राण हरण कर लिया।

विद्यार्थीजी ने समूचे हिन्दी भाषी राज्यों में आजादी की अलख जगाने और राजनैतिक चेतना जागृत करने का महान् उपक्रम अपने तेजस्वी पत्र प्रतापके जरिये किया था। प्रतापकी तेजस्वी भूमिका की कल्पना विद्यार्थी जी के इस कथन से की जा सकती है, जो उन्होंने अपने पत्र के पहले अंक में प्रकाशित  किया था। उन्होंने कहा था कि किसी की प्रशंसा या अप्रशंसा, किसी की प्रसन्नता या अप्रसन्नता, किसी की घुड़की या धमकी हमें सुमार्ग से विचलित न कर सकेगी। साम्प्रदायिक और व्यक्तिगत झगड़ों से प्रतापसदा अलग रहने की कोशिश  करेगा, उसका जन्म किसी विशे ष सभा, संस्था, व्यक्ति या मत के पालन-पोषण के लिए या रक्षण अथवा विरोध के लिए नहीं हुआ है, किन्तु उसका मत स्वतंत्र विचार और उसका धर्म सत्य होगा, जिस दिन हमारी आत्मा इतनी निर्बल हो जाय कि हम अपने प्यारे आदर्शों  से डिग जायं, जान-बूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करे और उदारता, स्वतंत्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरूता दिखाये, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारे नैतिक मूल्यों के पतन के साथ ही साथ हमारे जीवन का अन्त हो जाय।

विद्यार्थीजी ने जब तक वे जीये, अपने इसी संपादकीय धर्म का पालन किया और वे असत्य और अन्याय के विरूद्ध अपनी लेखनी से निरन्तर प्रहार करते रहे, बल्कि बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि राजस्थान में जब सामन्तों और जागीरदारों के अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर थे और जन-जीवन पूरी तरह त्रस्त था, विद्यार्थी जी ने पत्र के जरिये यहां के जन-आंदोलनों को प्रबल समर्थन दिया था। सन् 1922 में जब लाग-बागऔर बेगारके खिलाफ बिजोलिया के किसानों ने विद्रोह का झण्डा उठाया और भारत के स्वाधीनता आंदोलन  के इतिहास में प्रसिद्ध बिजोलिया का कृषक आंदोलन चलाया था तो विद्यार्थी जी ने न केवल उस आंदोलन को समर्थन ही दिया, अपितु उन्होंने यहां के राजनैतिक कार्यकर्ताओं से निरन्तर सम्पर्क बनाये  रखकर उनका मार्गदर्शन भी किया। 14 जून, 1920 को उन्होंने बिजोलिया पर काले बादलशीर्षक अपनी टिप्पणी में बिजोलिया के जागीरदार के क्रूर-कर्मों की न केवल भर्त्सना की, अपितु महाराणा मेवाड़ को भी ललकारा और उन्हें अपने सुप्त गौरव का स्मरण इन शब्दों में करायाः-

हम अत्यन्त नम्रता के साथ एक बात बिजोलिया के किसानों के सांसारिक प्रभु श्रीमान् महाराना साहब से कह देना चाहते हैं और वह यह है कि ईश्वर ने उन्हें एक बड़ा काम सौंपा था, उन्हें एक बड़े राज्यवंश में जन्माया था, ऐसे राजवंश  में जिसके राजा देश  और देश  के लोगों के लिए अपने प्राणों की बलि देना अपना धर्म मानते थे, परन्तु उन्होंने उस धर्म को नहीं निभाया जो जन्म और कर्तव्य के कारण उनको निभाना चाहिये था, पुरानी रूढ़ियों और निरंकुशता की आदतों ने उनकी दृष्टि के सामने उन लोगों को पिसते और कुचलते ही रहने दिया, जिनकी रक्षा का भार उन पर था। यह साधारण बात नहीं। एक मीठा विश्वास  है जिसके वशीभूत होकर निरंकुश  लोग निरंकुशता   करते हैं, दूसरों के सिरों पर चलते हैं और सदा यही समझते हैं कि हमारा क्या बिगड़ेगा?’

बिजोलिया ही नहीं, आगे चलकर बेगूं और सिरोही में जो किसान आन्दोलन हुए, उनके समर्थन में भी विद्यार्थी जी ने अपने पत्र में समाचार और टिप्पणियां प्रकाशित कीं।