रविवार, 16 दिसंबर 2012

कितने विलक्षण थे वे पेथोलॉजी प्रोफेसर


चिकित्सा शास्त्र में एक ऐसी मनोवैज्ञानिक बीमारी का उल्लेख है,  जिसके रोगी को,  चाहे वह कितना ही भद्रजन हो,  चुपके-से छोटी-मोटी मन पसंद चीज़ चुरा लेने में पराक्रम बोध होता है। कहते हैं, इंग्लैण्ड के एक शहज़ादे को यही रोग था। इसलिए जब कभी वे सेवकों के साथ शॉपिंग   पर जाते थे और किसी प्रिय स्टोर पर खरीदारी करने लगते थे, तो सेवक और सेल्स काउण्टर के प्रभारी इधर-उधर हो जाते थे। इस बीच शहज़ादा नज़र चुरा कर अपनी पसंद की चीज़ें ओवर कोट में डाल लेता था। उनके जाने के बाद जो भी वस्तुएं वहां से मिसिंग पाई जातीं,  उनका बिल राज भवन को भेज दिया जाता था। कुछ ऐसा ही रोग बताया जाता था पेथोलॉजी के एक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रोफेसर को, जो कभी जयपुर में ही निवास करते थे। उनकी असाधारण प्रतिभा का आलम यह था कि उन्होंने पेथोलॉजी के क्षेत्र में शीर्षतम उपाधियां प्राप्त की थीं और श्रेष्ठतम कोटि का शोध कार्य किया था। यही कारण था कि वे सीधे प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किए गए थे। खद्दर का धोती कुर्ता पहनने वाले वे मेडिकल कालेज के एक ही विचित्र प्राध्यापक थे। एक आइ.ए.एस. अधिकारी के ज़रिए मैं उनके निकट सम्पर्क में आया था। उनके साहित्यानुराग के कारण वे मेरे पास अक्सर आते रहते थे। मैं स्तंभित रह गया था,  जब मैंने उन्हें प्राच्य विद्या विदों और संस्कृत विद्वानों के एक सेमिनार में धारा प्रवाह संस्कृत में बोलते देखा। वे सचमुच अपने विषय के अतिरिक्त संस्कृत के उद्भट विद्वान भी थे। उनकी परिकल्पना एलोपैथी चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा हिन्दी के माध्यम से संभव बनाने की थी। प्रयोगात्मक रूप से उन्होंने ‘’प्रज्ञान’  के नाम से एक पत्रिका भी निकाली थी।

टी.पी. भारद्वाज के नाम से विख्यात् ये प्रोफेसर मेडिकल कॉलेज में अपने विभाग के लिए की गई बड़ी खरीद के सिलसिले में वित्तीय अनियमितताओं में फॅंस गए। भ्रष्टाचार विभाग द्वारा धरपकड़ हुई। जांच का लम्बा सिलसिला चला। जैसा कि प्रवाद प्रचलित था,  जांच के दौरान उन्होंने एक बार कुछ कागज़ जांच अधिकारी के हाथ से छीन कर मुंह में चबा लिए और निगल गए। उनका निलम्बन हुआ। कई बरस जांच चलती रही। बेचारे बड़े परेशान थे। अक्सर ऐसा देखा गया है कि इस कोटि के विशिष्ट विद्वान् प्रशासनिक मामलों में शातिर न होने के कारण ऐसे कुचक्रों में फॅंस ही जाते हैं। डा. भारद्वाज ऐसे ही अभागों में थे। लम्बी एन्क्वाइरी के बाद उन्हें कुछ प्रकरणों में दोषी पाया गया और शासन के शीर्ष स्तरों पर पड़ताल के बाद कार्मिक विभाग ने उनके लिए यह दण्ड तज़बीज़ किया कि उन्हें रीडर के पद पर पदावनत कर दिया जाए। इस प्रस्तावित दण्ड पर लोक सेवा आयोग की सहमति भी आवश्यक थी। पत्रावलि आयोग को डिस्पैच होने वाली थी कि डा. भारद्वाज मेरे पास भागे हुए आए। वे हाइकोर्ट जाने की तैयारी मानसिक रूप से कर चुके थे। मैंने उन्हें थोड़ा ठंडे दिमाग से समझाया-‘डा. साहब, आपकी नियुक्ति सीधे प्रोफेसर के पद पर हुई थी। आप लेक्चरर से रीडर और रीडर से प्रोफेसर नहीं बने थे। दण्ड स्वरूप नीचे के पद पर उसे डिमोट किया जाता है,  जो प्रमोशन से ऊपर गया हो। सरकार आपको पदावनत करने की कानून सम्मत स्थिति में नहीं है। वह या तो आपकी सेवाएं समाप्त करे या आपको पुनः प्रोफेसर के पद पर स्थापित करे। डा. भारद्वाज को मेरा तर्क उचित लगा। उन्होंने मामला लोक सेवा आयोग में जाने पर आयोग-अध्यक्ष से भेंट कर अपना तर्क रखा। उनका तर्क विवेक सम्मत था। डा. भारद्वाज की योग्यता का दूसरा व्यक्ति सहज ही उपलब्ध नहीं होने वाला था। अन्ततः कुछ वेतन वृद्धियां खो कर ही सही,  डा. भारद्वाज अपनी  जंग में विजयी रहे।

अनुमान है कि साल-दो साल बाद वे जोधपुर मेडिकल कॉलेज में प्रिन्सिपल हो कर चले गए। एक दिन शाम तक भारद्वाज अपने बंगले पर नहीं लौटे। खोज-बीन शुरु  हुई। उनकी कार कॉलेज के मार्ग में एक पेड़ से टकराई हुई दिखाई दी। नज़ारा हृदय विदारक था। डा. टी.पी. भारद्वाज के प्राण पखेरु उड़ चुके थे। विशेषज्ञों ने निर्णय दिया कि उन्हें फेटल हार्ट अटैक हुआ था। एक विद्वान् प्रोफेसर की यह दुःखान्तिका सभी परिचितों के लिए त्रासद थी।

अज्ञेय जी के साथ आचमन



    ज़िन्दगी का यह तमाशा  कुछ पहर है ।
             भूल मत यह तो जनाज़े का सफर है ।।

राजस्थान के यशस्वी कवि और साहित्यकार स्वर्गीय प्रकाश  आतुर की ये पंक्तियां  उनकी स्मृति के साथ रह रह कर याद आती हैं। प्रकाश  भाई का रोम-रोम प्रबल जिजीविषा की उत्ताल तरंगों से तरंगायित रहता था। हर समय गर्म जोशी  के साथ मिलना और कहकहे लगाना  उनके व्यक्तित्व की बुनावट का बेहद खूबसूरत हिस्सा था,  पर वे जीवन की क्षण भंगुरता के प्रति भी हर समय सजग रहते थे और कदाचित् यही कारण था कि वे हर दिन को उत्सव की तरह व्यतीत करते थे। वे भोर की पहली किरण के साथ गुनगुनाते उठते थे और शाम की तन्हाइयों को ज़िन्दादिल दोस्तों की सोहबत और उनके साथ होने वाली चुहलबाज़ी और आपान गोष्ठियों के आयोजन से आनन्दमय बना लेते थे।

मैं अकेला ही ऐसा व्यक्ति नहीं हूं,  जिसके साथ प्रकाश  आतुर के अन्तरंग रिश्ते  थे। बाड़मेर से ले कर बांसवाड़ा तक बीसियों सृजनधर्मी उनकी मैत्री की उस परिधि में समाविष्ट थे,  जिसका विस्तार निरन्तर होता ही रहता था।

आज उनके पुण्य स्मरण के समय मुझे एक ऐसे प्रसंग का ध्यान सहसा आ जाता है,  जिसे विस्मृत कर देना मेरे लिए कठिन होगा।

राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के रूप में प्रकाश आतुर के साहित्यिक रिश्तों  का विस्तार बहुत हो गया था और उन्हीं के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण राजस्थान के साहित्यिक बन्धुत्व ने भी बहुत प्रसार पाया था। बड़े-बड़े लेखक उनके आग्रह को टाल नहीं सकते थे । कुछ वर्षों पहले की बात है - माउण्ट आबू में एक लेखक सम्मेलन का आयोजन किया गया था,  जिसमें अज्ञेय जी विशिष्ट  अतिथि थे। अज्ञेय जी का व्यक्तित्व भारतीय लेखक समुदाय में अपूर्व था। उनकी शान  और उनके सृजन की धाक तो थी ही, उनका वाणी संयम भी गज़ब का था। बहुत कम बोलते थे,  बहुत कम खुलते थे। अनेक बार उनके इस संयम को ‘स्नॉबरी’  भी समझा जाता था। उस दिन 26  जून थी। रात्रि को मैंने उन्हें बताया कि आज प्रकाश  जी का जन्म दिन है। वे सुन कर बड़े प्रसन्न हुए। इतनी देर में प्रकाश भाई जी भी आ पहुंचे और अज्ञेय जी से अनुरोध किया कि कुछ समय हमारे साथ रह कर आशीर्वाद प्रदान करें। प्रकाश  जी के कक्ष में आकस्मिक आगन्तुकों के कारण विघ्न हो सकता था,  इस आशंका  से आयोजन मेरे कक्ष में रखा गया। अज्ञेय जी, प्रकाश  भाई,  सावित्री परमार और हमारे आत्मीय मित्र ओम थानवी उस अनौपचारिक जन्मोत्सव में शामिल थे। लोगों को बड़ा आश्चर्य  हुआ, जब हमने बताया कि प्रकाश जी का जन्म दिन होने के कारण अज्ञेय जी ने हमारे आग्रह पर चषक ग्रहण कर हमारी हैसियत में इज़ाफा किया था।

कुछ अरसे पहले अज्ञेय जी के शताब्दी वर्ष में ओम  थानवी जी ने, जो अज्ञेय जी के बहुत निकट रहे थे,  उनके संस्मरणों के दो खंड ’अपने-अपने अज्ञेय’  शीर्षक से प्रकाशित किए थे।  पृथुल कलेवर वाले ये संस्मरण-संकलन दो खंडों में प्रकाशित किए गए हैं। वाणी प्रकाशन द्वारा किए गए इस साहसिक उपक्रम की सराहना निश्चित ही की जानी चाहिए, किन्तु पंद्रह सौ रुपए के मूल्य के प्रत्येक खंड की पहुंच सामान्य पाठक तक न हो कर केवल पुस्तकालयों तक ही हो सकेगी।

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

समस्याएं सत्तर के पार पेन्शनर्स की


वैसे तो राज्य सरकार के आदेश हैं कि जिस दिन भी राज्य कर्मचारी सेवा-निवृत्त हो, उसकी पेन्शन, ग्रेच्युटी, लीव-एनकैशमैन्ट आदि के सारे कागजात उसी दिन डिलीवर कर दिये जाने चाहिए, किन्तु यह तथ्य भी छिपा नहीं है कि अनेकानेक कारणों से उनकी इन प्राप्तियों में अडंगे लगते रहते हैं और पीड़ित व्यक्तियों को न्यायालयों की शरण भी लेनी पड़ती है। बहरहाल!

समस्यायें गौर तलब उन पेन्शनर्स की हैं, जो सत्तर के पार पहुँच चुके हैं। उनमें 75  से लेकर 80-85  और 90-95  तक की आयु के पेन्शनर्स हैं, जो शारीरिक रूप से नितान्त असमर्थ हो चुके हैं। इनमें अच्छी खासी संख्या पारिवारिक पेन्शन प्राप्त करने वाली विधवाओं की है। इस आयु वर्ग के पेन्शनर्स को अपनी पेन्शन प्राप्त करने में कितनी कठिनाइयाँ होती हैं, इसका अनुमान कदाचित् राज्य के पेन्शन विभाग को भी नहीं है। किस प्रकार पहली तारीख को या इसके बाद ये बुजुर्ग पेन्शनर्स बसों में धक्के खाते हुए विभिन्न बैंकों तथा पेन्शन डिस्बर्समैन्ट केन्द्रों तक पहुँचते हैं, इस पीड़ा को मुक्त भोगी लोग ही जानते हैं। इतनी अधिक आयु के पेन्शनर्स में कुछ तो हतने अशक्त हैं कि उनसे चला भी नहीं जाता। बड़ी उम्र के इन लोगों में अधिकांशतः किसी न किसी बीमारी से पीड़ित होते हैं। उनके हाथों की अँगुलियाँ काँपने लगती हैं। बैंक में स्पेसीमैन सिग्नेचर नहीं मिलते, तो दिक्कत होती है, बार-बार हस्ताक्षर कराये जाते हैं। पेन्शन राशि लेने की प्रक्रिया में ही दिन पूरा हो जाता है।

वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण का जो कानून राज्य में लागू हुआ है, उसके नियमों में यह भी प्रावधान है कि वरिष्ठ नागरिकों के लिए गरिमापूर्ण और सुविधापूर्ण जीवन सुनिश्चित करने के लिए जिला मजिस्ट्रेट नियमों में प्रावधित कर्तव्यों के अतिरिक्त और भी बिन्दु जोड़ सकते हैं। ऐसे में क्या यह व्यवस्था नहीं की जा सकती कि हर जिले में ऐसा तन्त्र विकसित किया जाय, जिसके माध्यम से 70  से लेकर ऊपर की अधिकतम आयु के पेन्शनर्स की पेन्शन उनके निवास पर ही भुगतान कर दी जाये। सरकार को इसके लिए कोई तन्त्र विकसित करने के लिए अतिरिक्त कार्मिक व्यवस्था करने की आवश्यकता भी नहीं होगी। सरकार के कितने ही विभाग ऐसे हैं, जिनमें आवश्यकता से अधिक कर्मचारी हैं और वे अधिकांश समय में मस्ती ही मारते रहते हैं। ऐसे कर्मचारियों को उन विभागों से लेकर लेखा सेवा के किसी अधिकारी के अधीन इस सेवा-कार्य में लगाया जा सकता है।

60  से 65 वर्ष की आयु तक के कुछ पेन्शनर्स को भी तर्कसम्मत पारिश्रमिक देकर उनकी सेवाओं का उपयोग इस कार्य के लिए किया जा सकता है। नगर निगम के अन्तर्गत जितने जोन्स हैं, उन्हें ध्यान में रखकर प्रत्येक जोन के लिए ऐसे पेन्शन-वितरक तैनात किये जा सकते हैं। इस प्रकृति की व्यवस्था में किसी तरह की त्रुटि, विलम्ब, या भ्रष्टाचरण न हो, इसके लिए ‘इन बिल्ट सेफ गार्ड’  सावधानीपूर्वक रखे जा सकते हैं। आशा की जानी चाहिए कि राज्य का वित्त विभाग पूरी संवेदनशीलता के साथ ऐसे किसी तन्त्र को स्थापित करने की पहल करेगा।

बुजुर्गों पर बढ़ते अत्याचारः निवारण कैसे हो ?


हमारे जन-जीवन में आदर्श और आचरण के बीच जितनी गहरी खाई है, उसका शब्दों में बखान करना मुश्किल है। हम लोग तरह-तरह के दिवस मनाते हैं। प्रेम दिवस, मातृ दिवस, पितृ दिवस, पर्यावरण दिवस और न जाने क्या-क्या दिवस। इन दिवसों के पीछे भावनात्मक प्रेरणा और शक्ति कितनी है, यह तो हम व्यावहारिक रूप से जानते ही हैं। इन दिवसों पर छपने और बँटने वाले कार्डों का भी करोड़ों का कारोबार होता है, जिसका तात्पर्य प्रकटतः यही है कि हमने मनुष्य के अन्तर्मन की भावनाओं को भी तिजारत में बदल दिया है। मीडिया भी इन दिवसों पर अपना धन्धा करने से नहीं चूकता। फिर भी यह सन्तोष का विषय है कि समय-समय पर हमारे समाचार पत्र सामाजिक सरोकारों के मुद्दों को सुर्खियों में छापते हैं। पितृ दिवस अभी दो दिन पूर्व ही गया है और उससे कुछ दिन पूर्व समाचार पत्रों में हैल्पेज इन्डिया के अध्ययन की एक रिपोर्ट छपी है, जिसमें कहा गया है कि बुजुर्ग लोग अपनी पुत्र-वधुओं की तुलना में पुत्रों द्वारा अधिक सताये जाते हैं। हैल्पेज इन्डिया बड़ी प्रतिष्ठित समाजसेवी संस्था है और उसके निष्कर्ष विश्वसनीयता के निकट होने चाहिए। रिपोर्ट के अनुसार 31  फीसदी बुजुर्गों को उनकी बहुएं नहीं, बल्कि उनके बेटे दुःखी करते हैं। बुजुर्गों के उत्पीड़न के लिए केवल 23  फीसदी बहुएं जिम्मेदार हैं, जबकि 57  प्रतिशत बेटे अपने नृशंस व्यवहार के लिए उत्तरदायी हैं। हैल्पेज इन्डिया की यह रिपोर्ट 20  शहरों में करीब 6000  बुजुर्गों से साक्षात्कार करके तैयार की गई है। रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में बुजुर्गों को सताने और परेशान करने के कसूरवार उनकी बहुओं से ज्यादा उनके अपने बेटे हैं। हर शहर में यही ट्रेंड देखा गया, जो हैरान करने वाला था। सर्वे में हर इनकम ग्रुप और एजुकेटेड क्लास के लोगों की राय ली गई। सभी में ट्रेंड एक जैसे दिखाई दिए।

बुजुर्गों के लिए मुश्किल भरे शहरों में भोपाल सबसे आगे है, यहां 77.12  फीसदी बुजुर्ग परेशानी झेलते हैं। सबसे बेहतर स्थिति जयपुर की दिखी, जहां यह आंकड़ा सिर्फ 1.67  फीसदी है। यह मुद्रण की त्रुटि भी हो सकती है।

यदि ऐसा नहीं है तो, जयपुर का यह आँकड़ा चौंकाने वाला है, क्योंकि आये दिन माता-पिताओं के उत्पीड़न की जैसी खबरें छपती रहती हैं, उसे दृष्टिगत रखते हुए यह धारणा नितान्त अविश्वसनीय प्रतीत होती है। वैसे भी सैम्पल सर्वे की अपनी सीमाएं होती हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि राज्य में केन्द्र द्वारा पारित माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम-2007  लागू किये जाने और उसके अन्तर्गत नियम बन जाने के बाद इस कानून के तहत बुजुर्ग लोग राहत के लिए आवेदन करने से कतराते हैं, जिसके पीछे उनका यही भय छिपा रहता है कि ऐसा करने से उनके परिवार का अपयश होगा। किन्तु इस तरह की भावना को निर्मूल करने और इस कानून के प्रावधानों का व्यापक प्रचार-प्रसार करने की दिशा में सरकार और सोशल एक्टीविस्ट दोनों ही निष्क्रिय प्रतीत होते हैं। चूँकि अभी इस संबंध में जन-मानस में जागरूकता नहीं आई है, जिला मजिस्ट्रेटों के लिए यह अनिवार्य है कि वे उपनियम (2) और (3)  में उल्लिखित कर्तव्यों और शक्तियों का प्रयोग यह सुनिश्चित करने के लिए करें कि अधिनियम के उपबन्धों का उनके जिले में समुचित रूप से क्रियान्वयन किया जा रहा है। जिला मजिस्ट्रेटों के मुख्य कर्तव्य उक्त प्रावधान के अन्तर्गत निम्न प्रकार हैं -

1. यह सुनिश्चित करना कि जिले के वरिष्ठ नागरिकों का जीवन और सम्पत्ति सुरक्षित है और वे सुरक्षा और गरिमा के साथ जीवन-यापन करने में समर्थ है;

2. भरण पोषण के आवेदनों के यथासमय और उचित निपटान और अधिकरणों के आदेशों के निष्पादन को सुनिश्चित करने की दृष्टि से जिले के भरण पोषण अधिकरणों और भरण पोषण अधिकारियों के कार्य का निरीक्षण और मॉनीटर करना;

3. जिले के वृद्धाश्रमों के कार्यकरण का निरीक्षण और मॉनीटर करना ताकि यह सुनिश्चित किया जाये कि वे इन नियमों और राज्य सरकार के अन्य मार्गदर्शक सिद्धान्तों और आदेशों में अधिकथित मानकों के अनुरूप हैं;

4. अधिनियम के उपबंधों और वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों के कार्यक्रमों के नियमित और व्यापक प्रचार को सुनिश्चित करना;

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सरकार के संबंधित विभाग वरिष्ठ नागरिकों के गरिमापूर्ण जीवन को सुनिश्चित करने के लिए कानून के प्रावधानों की जानकारी समाचार पत्रों और टी.वी. चैनल्स पर डिस्प्ले विज्ञापनों के जरिये घर-घर पहुँचायें और जो वास्तविक हालात हैं उनका सर्वेक्षण भी करायें। गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस दिशा में बहुत कुछ योगदान कर सकती है। आशा है, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, जो न केवल मन से बहुत संवेदनशील हैं, अपितु अपने माता-पिता की सेवा के लिए भी बहुत चर्चित रहे हैं, राज्य में बुजुर्गों के बेहतर जीवन के लिए और अधिक कारगर कदम उठायेंगे।

आत्म-विज्ञापन में उलझी अफसरशाही


प्रशासन के ऊँचे पदों पर बैठे आला अफसरों का राजन्य भाव और समाज के सभी वर्गों पर बढ़ता उनका दबदबा अब कोई रहस्य नहीं रह गया है। राजनीति विज्ञानियों की भाषा में भले ही चुने हुए जनप्रतिनिधि  ‘स्वामी’  की संज्ञा से अभिहित होते हों और नौकरशाही की जमात ‘लोकसेवकों की बिरादरी’  कहलाती हो,  किन्तु व्यावहारिक जीवन में आलम कुछ और ही है। भर्तृहरि ने शताब्दियों पूर्व कहा था कि सेवाधर्म सामान्यजन के लिए तो क्या,  योगियों के लिए भी परम गहन है। किन्तु आज के आला अफसरों को ऐसी प्रतीति कदाचित् दूर-दूर तक नहीं होती। उनके स्वभावगत अहंकार,  सर्वज्ञता के भ्रम और राजसी शैली से तो सभी वाकिफ रहे हैं,  किन्तु हाल के वर्षों में उनमें आत्म-विज्ञापन का आसव पीकर उन्मत्त होने की जैसी उत्कट लालसा देखने में आ रही है,  वह चिन्तनीय है।

एक समय वह था,  जब सरकार के बड़े अफसर भले ही कितने सुविधाभोगी रहे हों,  किन्तु आत्म-प्रचार की व्याधि से ग्रस्त नहीं थे। मुझे याद आता है,  पाँच दशक से अधिक समय पूर्व का वह प्रसंग,  जब राजस्थान के सबसे लंबे समय तक मुख्य सचिव रहे स्व. भगवत सिंह मेहता ने शासन द्वारा प्रकाशित एक पत्रिका में इन पंक्तियों के लेखक द्वारा सम्पादक की हैसियत से उनका एक चित्र छापे जाने पर पत्र लिखकर आगाह किया था कि भविष्य में कभी भी सरकारी अधिकारियों के चित्र विकास विभाग की उस पत्रिका में न छापे जायें। किन्तु बदलाव कितना आ गया है कि पिछले दिनों एक सरकारी विभाग की पत्रिका में उनके अपने शासन सचिव और विभागाध्यक्ष के ही एक दर्जन से अधिक चित्र प्रकाशित किये गये थे। ऐसी एक नहीं अनेक शासकी पत्रिकाएं और समय-समय पर प्रकाशित होने वाले सामयिक प्रकाशन आपकी दृष्टि से गुजर जायेंगे, जिनमें सरकार के आला अफसरों की तस्वीरें बड़ी संख्या में आये दिन अनिवार्य रूप से छपती रहती हैं।
मजे की बात तो यह है कि आजकल किसी भी सरकारी विभाग या गैर सरकारी संस्थान का कोई भी सार्वजनिक आयोजन हो, विभागीय मंत्रियों के साथ विभागीय सचिव और विभागाध्यक्ष भी समारोह में विशिष्ट अतिथि बनते हैं और अध्यक्षता करते हैं। इतना ही नहीं नेताओं को जिस प्रकार शाल ओढ़ाकर या सिर पर साफा पहनाकर सम्मानित किया जाता है,  उसी तर्ज पर अधिकारियों का भी सार्वजनिक सम्मान किया जाता है। बात चाहे राज्य की राजधानी की हो या कि किसी प्रदेश के जिला क्षेत्रों की,  परिदृश्य वही नजर आता है। जिला कलक्टर तो आये दिन ही इस प्रकार के समारोहों को अपनी उपस्थिति से उपकृत करते रहते हैं। ऐसे अवसरों पर निकलने वाली स्मारिकाओं और पुस्तिकाओं में उनके नयनाभिराम चित्र भी सैकड़ों की संख्या में देखने को मिल जायेंगे। इतना ही नहीं,  आला अफसरों के संदेशों से भी सभी सरकारी और गैर-सरकारी प्रकाशन भरे रहते हैं,  जिनके साथ अनिवार्य रूप से उनके चित्र लगे होते हैं। प्रायः प्रत्येक राज्य के सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय के अन्तर्गत कार्य कर रहे जिला जनसंपर्क अधिकारी तो जिला कलक्टरों के भाषण और तस्वीरें आंचलिक साप्ताहिकों और पाक्षिकों में छपाकर उनका कृपा-प्रसाद पाने में ही अपने कर्म की सार्थकता समझते हैं। राज्य की राजधानियों और बड़े नगरों में होने वाले साहित्यिक,  सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजनों पर यदि दृष्टि डालें,  तो अक्सर दूरदर्शन,  आकाशवाणी और सूचना निदेशालयों के अधिकारी मंच पर मुख्य अतिथि,  विशिष्ट अतिथि या अध्यक्ष के रूप में बिराज रहे होंगे। आयोजकों द्वारा मंच पर उन्हें सुशोभित करने का मंशा एक ही होता है कि उनके कार्यक्रम को प्रचार मिल जाये। प्रचार की इस प्रक्रिया में संचार माध्यमों के कीर्ति पुरूषों के चित्र तो मुद्रित या इलेक्ट्रानिक मीडिया में स्वतः स्थान पा ही लेते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि राज्य शासन या केन्द्र शासन द्वारा इसका कोई नोटिस नहीं लिया जाता कि ये अधिकारी इन रस्मी आयोजनों के उद्घाटन और समापन समारोह में राज-काज को परे रखकर अपना कितना समय बर्बाद करते हैं। यूंकि इस कोटि के अधिकारी प्रायः सरकारी वाहनों में ही ऐसे आयोजन स्थलों पर जाते हैं, इसलिए वाहनों का दुरूपयोग भी प्रकटतः होता ही है। पिछले डेढ़-दो दशकों में आला अफसरों में आत्म-प्रचार की यह प्रवृत्ति इतनी तेजी से बढ़ी है कि वह राजनेताओं की आत्म-विज्ञापन-कामिता से होड़ लगाती है। राज्य कोष में निरन्तर सेंध लगाने वाले ये उच्च वेतन भोगी आला अफसर इन प्रचारात्मक प्रवृत्तियों में कितनी ऊर्जा,  समय और सार्वजनिक धन का अपव्यय करते हैं,  इसकी कल्पना की जा सकती है। क्या सरकारें अपने इन लोकसेवकों पर उनकी इस आत्म-प्रचारात्मक मानसिकता को तोड़ने और उनके द्वारा जनप्रतिनिधियों के साथ समारोहों में मंचस्थ होने पर कोई अंकुश नहीं लगा सकती?

इतना ही नहीं,  विशेष अवसरों और अभियानों के दौरान जो बड़े-बड़े विज्ञापन मंत्रियों के नयनाभिराम चित्रों और उपलब्धियों के अतिरंजित आंकड़ों के साथ छापे जाते हैं,  उनमें भी अनेक बार आयोजनकर्ताओं में नौकरशाही की चाटुकारिता के अभ्यस्त लोग आला अफसरों के फोटोग्राफ छपाते रहते हैं। पीछे मुड़कर देखें, तो स्वाधीनता प्राप्ति के बाद देश के पुर्ननिर्माण की दिशा में नेहरू युग में जो कार्य हुआ,  उसकी उपलब्धियों के आंकड़े और उनके साथ बड़े-बड़े चित्र कभी भी उस बेहूदा ढंग से नहीं छापे गये जिस तरह से आजकल छापे जा रहे हैं। आज के वरिष्ठ नागरिकों को वह युग भूला नहीं है,  जब कभी भी न तो सरकारी उपलब्धियों के बड़े-बड़े इश्तहारों पर करोड़ों रूपये स्वाहा किये जाते थे और न गाहे-बगाहे छपने वाले प्रचारात्मक विज्ञापनों में कभी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू,  सरदार पटेल या गोविन्द वल्लभ पंत के चित्र छपते थे। किन्तु अब तो नेताओं की तो बात ही क्या है विभिन्न आयोजनों के अवसरों पर छपने वाले विज्ञापनों में जिला स्तर तक के अधिकारियों के चित्र धड़ल्ले से छप रहे हैं।

इन दिनों एक और रोग बड़ा तेजी से फैल रहा है। देश में अनेक व्यक्ति और संस्थाएं सम्मानों का कारोबार कर रही हैं। बीसियों ऐसी संस्थाएं महानगरों में बनी हैं,  जिनके संरक्षक अधिकांशतः अब महत्वहीन हो चुके बड़े नेता, पूर्व मंत्री और पूर्व सांसद हैं। ये संस्थाएं और इनसे जुड़े चालाक व्यक्ति नाना प्रकार के सम्मानों का आयोजन करते हैं और विविध क्षेत्रों में सेवाओं के लिए विभिन्न वर्गों के लोगों को मोटी रकम लेकर सम्मानित करने की तिजारत करके अपनी तिजोरियां भरते रहते हैं। उनकी व्यूह रचना ही यह होती है कि वे ऐसे पुरस्कारों और सम्मानों का बड़ा प्रभावशाली नामकरण करते हैं और फिर उसके लिए ऐसे यशपिपासु ढूंढते हैं,  जो अक्ल के अंधे और गांठ के पूरे होते हैं। सम्मानों के इस कारोबार को पनपाने में वे आला अफसर भी बड़े सहायक होते हैं,  जो स्वयं इन सम्मानों और अलंकरणों को निःशुल्क प्राप्त कर अपने को धन्य समझते हैं। इन सम्मानों के कारोबारी और धंधेबाज लोगों की रणनीति ही यह होती है कि वे कुछ आला अफसरों को सम्मान के इस मोहजाल में फांसें,  ताकि वे उनके नामों का उल्लेख करके कुछ ऐसे धनी लोगों को भी फांस सकें जो विभिन्न व्यवसायों में लगे रहने के साथ मिथ्या  सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के व्यामोह में ऐसे विकृत सम्मान प्राप्त करने के लिए मोटी रकम दे सकें। अभी कुछ वर्षों पहले ही अपने एक परिचित व्यवसायी को ऐसे ही तथाकथित राष्ट्रीय सम्मान से दिल्ली में सम्मानित किया गया था और उनके साथ कुछ आला अफसर भी सम्मानित हुए थे। अपने उन परिचित व्यवसायी की भव्य तस्वीर जब मैंने एक समाचार पत्र में छपी देखी,  तो मैंने उन्हें फोन पर बधाई देना चाहा तो उनसे यह दुखड़ा रोये बिना नहीं रहा गया कि वह सम्मान प्राप्त करने और फोटो छपाने में उन्होंने पूरे 50,000  हजार रूपये व्यय किये हैं।

ऐसे आला अफसरों की भी कमी नहीं हैं जो अपने को बड़ा कवि या गायक समझने की भ्रान्ति पाले रहते हैं। अक्सर ऐसे नौकरशाह कवि कार्यालय समय में भी अपना काव्य पाठ अपने मित्रों और सहधर्मी अधिकारियों के सामने करने से बाज नहीं आते। अपने प्रभाव का उपयोग करके वे न केवल अपनी घटिया किस्म की तुकबन्दियों के संकलन छपाते रहते हैं,  बल्कि पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करने की टोह में भी रहते हैं। आला अफसरों द्वारा अपने मिथ्या अहम् की तुष्टि के लिए कराई जाने वाली इस प्रकृति की वैनिटी पब्लिशिंग के सैकड़ों नमूने पुस्तक विक्रेताओं की दुकानों पर देखे जा सकते हैं। काश! राज्य सरकार अपने अफसरों के इस आत्म-विज्ञापन के व्यामोह पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक निर्देश जारी कर सके।

धन्यवाद के पात्र हैं राष्ट्रपति महोदय


वैसे तो पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने भी कुछ सामन्ती परम्पराओं को तोड़ा था। उदाहरणार्थ,  उन्होंने इस सामन्ती प्रचलन को बंद किया था कि राष्ट्रपति को उनके जूते कोई सेवक पहनाए,  चाहे राष्ट्रपति भवन में और चाहे समाधि स्थलों पर श्रद्धांजलि अर्पित करते समय जूते उतारने की ज़रुरत पड़ी हो। सेवकों द्वारा जूते पहनाने और जूते उतारने में उन्होंने सेवकों की सहायता का सर्वथा परित्याग कर दिया था। उसी प्रकार राष्ट्रपति भवन में इतना बड़ा अमला होते हुए भी वे स्वयं कम्प्यूटर पर बैठ कर इण्टरनेट के ज़रिए वैज्ञानिक गतिविधियों का लेखा-जोखा लेते रहते थे। उनकी यह जीवन शैली सब ओर सराही गई थी,  किन्तु हाल ही में पदासीन हुए राष्ट्रपति महोदय प्रणब मुखर्जी ने तो औपनिवेशिक शब्दावली के बहिष्कार की घोषणा करके निश्चित रूप से एक ऐसा स्तुत्य कार्य किया है,  जिसकी ओर किसी का ध्यान अब तक नहीं गया था। उन्होंने पहले तो अपने वक्तव्य में इस बात की निन्दा करते हुए कि ‘’हिज़ एक्सिलेन्सी’  और ‘’महामहिम’  जैसे शब्द हमारी मानसिक दासता के प्रतीक हैं और उनके लिए इन शब्दों का प्रयोग न किया जाए। अधिक से अधिक जहॉं नामोल्लेख ज़रूरी हो,  उन्हें ‘श्री प्रणब मुखर्जी ही कहा जाए। उन्होंने इस बात पर भी आपत्ति प्रकट की थी कि राजकीय और गैर राजकीय समारोहों में जहॉं वे पधारें वहॉं उनके लिए मंच पर ऊॅंची कुर्सी न लगाई जाए। अब तो राष्ट्रपति भवन से भी औपचारिक विज्ञप्ति जारी कर दी गई है। उसमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि देशवासियों द्वारा उन्हें किसी भी प्रसंग में ‘’हिज़ एक्सिलेन्सी’  और ‘’महामहिम’  जैसे विशेषणों से अलंकृत न किया जाए। इस विज्ञप्ति में इतनी-सी व्यवस्था अवश्य की गई है कि विदेशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ जुड़े आयोजनों और कार्यक्रमों में अन्तरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल का पालन किया जाता रहेगा।

आश्चर्य की बात यह है कि जब राष्ट्रपति जी ने ‘’हिज़ एक्सिलेन्सी’  और ‘’महामहिम’  जैसे शब्दों का बहिष्कार करने की बात अपने वक्तव्य में कही थी,  उसके बाद भी देश के किसी भाग के राज्यपाल ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी और न ही ऐसा कोई संकेत किया था कि वे भी भारी भरकम उपनिवेशवादी विशेषण अपने लिए प्रयुक्त किए जाने का मोह त्याग देंगे।

   किन्तु, अब जबकि राष्ट्रपति भवन से राष्ट्रपति जी के लिए उन विशेषणों का उपयोग न करने की विज्ञप्ति जारी की जा चुकी है,  तो राज्यपालों को भी क्या इस प्रकार के निर्देश राष्ट्रपति भवन से जारी किए जाएंगे?  क्योंकि राज्यपाल सीधे वहीं से नियंत्रित होते हैं। यहां तक कि कोई राज्यपाल अपने प्रदेश की राजधानी छोड़ कर अन्यत्र जाता है,  तो उसे राष्ट्रपति भवन को सूचित करना होता है। औपनिवेशिक शब्दावली के अन्तर्गत और ऐसी  कितनी ही संज्ञाओं का प्रयोग प्रचलन में है। मिसाल के तौर पर राज्यपाल लोग जहां रहते हैं उनके निवास स्थल को राज भवन क्यों कहा जाता है, जबकि मुख्य मंत्री जहां रहते हैं,  उसे मुख्य मंत्री निवास के नाम से जाना जाता है। राज्यपाल के रहने के स्थान को भी उसी प्रकार राज्यपाल निवास के नाम से पुकारा जा सकता है। इसी प्रकार राजधानी में और ज़िला मुख्यालयों पर जहां राजन्य व्यक्तियों के निवास होते हैं,  उस क्षेत्र को सब जगह,  यहां तक कि दौसा और बारां जैसे छोटे ज़िलो में भी,  जहां कलेक्टर और ज़िला स्तर के अन्य अधिकारी रहते हैं,  सिविल लाइन्स कहा जाता है और जयपुर की सिविल लाइन्स तो मशहूर है ही। प्रकटतः इस क्षेत्र को सामान्य लोगों की बस्तियों से एक विशिष्ट बस्ती के रूप में पहचान दी गई है,  जो सर्वथा अनुचित है। सिविल लाइन्स के नाम से जो बस्तियां जानी जाती हैं,  उनका नाम किसी ऐसे व्यक्ति के नाम पर भी रखा जा सकता है,  जिनका सार्वजनिक जीवन में असाधारण योगदान रहा हो।

एक और अद्भुत बात यह है कि जब-जब भी विभिन्न आयोजन गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस,  गॉंधी जयन्ती आदि के अवसर पर सरकार द्वारा किए जाते हैं,  तो राज्य का सामान्य प्रशासन विभाग समाचार पत्रों में जनता को जिस भाषा में आमंत्रित करता है,  वह सर्वथा सामन्ती प्रकृति की होती है। हर विज्ञापन इस पंक्ति के साथ ही प्रारम्भ होता है ‘सर्व साधारण को सूचित किया जाता है कि-- प्रकटतः ‘’सर्व साधारण’  जुमले का यह प्रयोग नागरिकों की एक तरह से अवमानना ही है। इन शब्दों के प्रयोग से स्पष्टरूप से यह गंध आती है कि आमंत्रण देने वाले राजसी लोगों की दृष्टि में नगर निवासी अपने मुकाबले में कमतर होते हैं। इस तरह का प्रयोग नितांत अवांछनीय है और अविलम्ब बंद हो जाना चाहिए।

हमारी अदालतों के जो सम्मन समाचार पत्रों में छपते हैं उनमें से अधिकांश की भाषा में उसी पुराने  औपनिवेशिक युग की झलक मिलती है,  जबकि केन्द्र सरकार के विधि मंत्रालय के राज भाषा विभाग ने विशुद्ध हिन्दी में अच्छे-अच्छे मानक प्रारूप उपलब्ध करा दिए हैं।

निष्कर्षतः राष्ट्रपति महोदय को इस बात के लिए हार्दिक धन्यवाद किया जाना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्रपति भवन से ही औपनिवेशिक विशेषणों को विदाई देने की पहल की है।    

नगर निगम के मुख्यालय में अग्नि-कांड


वैसे तो कदाचित् ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब जयपुर नगर-निगम से संबंधित कोई न कोई निन्दात्मक न्यूज स्टोरी स्थानीय समाचार पत्रों में न छपती हो। पर अभी दो दिन पूर्व नगर-निगम के मुख्यालय में हुए अग्नि-कांड में दो अनुभागों की फाइलें भस्मीभूत होने की खबर सचमुच चिन्ताजनक है। दफ्तरों में फाइलों को गुम करवा देना, दो चार महत्वपूर्ण फाइलों को निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा जलाया जाना तो समय-समय पर घटित होता रहा है। किन्तु इस प्रकार का फाइल-विनाशी अग्निकांड पहली बार ही सुना गया है। आग कैसे लगी, इसके बारे में तो स्थिति तभी स्पष्ट होगी, जब जाँच-समिति की रिपोर्ट सामने आयेगी, किन्तु यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस अग्निकांड में मेयर-विरोधी कुछ तत्वों का हाथ जरूर है। आग लगने का कारण बिजली का शॉर्ट सर्किट हो जाना भी हो, तब भी यह जाँच का एक मुख्य बिन्दु अवश्य होना चाहिए कि आग के पूरी तरह प्रज्जवलित हो जाने और उसमें पत्रावलियाँ जलते रहने की सूचना कब और कितने विलम्ब से दी गई और अग्निशामक कार्यवाही कितने विलम्ब से शुरू हुई। जो कुछ हुआ है, वह नगर के प्रबुद्ध जनों के मस्तिष्क को आन्दोलित करने वाला है।

पीछे मुड़कर देखें तो जब से ज्योति खंडेलवाल मेयर पद के लिए चुनी गई तबसे उन्हें शान्तिपूर्ण ढंग से काम करने देने का वातावरण नगर निगम परिसर में रहा ही नहीं। विपक्षी दल के साथ सिर-फुटव्वल और सी.ई.ओ’ज. के साथ संघर्ष का सिलसिला इस तरह चलता रहा है कि नगर-निगम तत्वतः एक कलह-केन्द्र बन गया है। मेयर पर तरह-तरह के आरोप भी लगते रहे हैं और सब ओर से उनके विरूद्ध चैन-चुरैया हरकतें होती रही हैं। तथ्यात्मक और सत्यात्मक स्थिति क्या है, कहना कठिन है। पर इन हालात का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करें, तो कहना होगा कि जब जब कोई मध्यम वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग की कोई महिला किसी महत्वपूर्ण आसन पर विराजमान होती है, तो लोग उसे कम ही बर्दाश्त कर पाते हैं। विशेष रूप से अधीनस्थ पुरूष कर्मियों की तो यह प्रवृत्ति ही है कि वे महिला-विरोधी ब्यूह-रचना में पूरी दिलचस्पी लेते रहें। यद्यपि राज्य में नारी-सशक्तीकरण की दुन्दुभी बराबर बजती रही है, पर महिला सरपंचों से लेकर महिला मेयरों और महिला मंत्रियों की जो स्थिति है, उस पर दृष्टि-निक्षेप करें, तो निराशाजनक निष्कर्ष ही प्राप्त होते हैं। आलम यह है कि बरसों पहले सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश जारी किये थे कि सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही क्षेत्रों के कार्यालयों में महिला यौन-उत्पीड़न और अशिष्टाचरण पर निगरानी रखने के लिए ऐसी समितियाँ गठित की जायें जिनकी अध्यक्ष न केवल महिला ही हो, अपितु उसके सदस्यों की संख्या में भी महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व हो। पूरे राज्य में सरकारी विभागों और सरकार द्वारा वित्त पोषित कितने संस्थानों में ऐसी समितियाँ बनी और उन्होंने क्या भूमिका निभाई, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है।

कोई एक दशक पूर्व इन पंक्तियों के लेखक ने एक अध्ययन सेंम्पल सर्वे पद्धति से कराया था, जिसका परिणाम यही निकला था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अन्तर्गत गठित समितियाँ पूर्णतः निष्क्रिय हैं और महिलाओं का उत्पीड़न कार्य-स्थलों पर पूर्ववत् जारी है। कितने दोषी अब तक दंडित हुए हैं, इसकी सरकारी स्रोतों से कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। कहने का आशय यह है कि वर्किंग वूमन किसी भी पद पर नियुक्त हो, या किसी भी शीर्ष पद पर वह लोकतान्त्रिक पद्धति द्वारा चयनित होकर बैठी हो, उसका मार्ग कंटकाकीर्ण ही रहता है। जयपुर नगर-निगम भी इसकी एक मिसाल ही प्रतीत होती है।

थोड़ी देर के लिए नगर-निगम प्रकरण को नजरन्दाज कर दें, तब भी यह तो सोचना ही होगा कि कार्यालयों में फाइलों का रख-रखाव बहुत प्रभावी एवं कड़ी सुरक्षात्मक व्यवस्था की मांग करता है। सरकार में अलबत्ता ऐसे भी कुछ कुशल और चौकन्ना रहने वाले आला अफसर हैं, जो गोपनीय फाइलों को आलमारियों में स्वयं बन्द करके रखते हैं और उनके निजी सहायकों की भी ऐसी पत्रावलियों तक पहुंच नहीं होती। वे अनुकरणीय हैं। बहरहाल, जयपुर नगर निगम में हुआ अग्नि-कांड गंभीर चिन्ता का विषय है और ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति किसी कार्यालय में न हो सके, इसके लिए उपचारात्मक कदम पूरी शिद्दत से उठाये जाने चाहिए।