शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

आत्म-विज्ञापन में उलझी अफसरशाही


प्रशासन के ऊँचे पदों पर बैठे आला अफसरों का राजन्य भाव और समाज के सभी वर्गों पर बढ़ता उनका दबदबा अब कोई रहस्य नहीं रह गया है। राजनीति विज्ञानियों की भाषा में भले ही चुने हुए जनप्रतिनिधि  ‘स्वामी’  की संज्ञा से अभिहित होते हों और नौकरशाही की जमात ‘लोकसेवकों की बिरादरी’  कहलाती हो,  किन्तु व्यावहारिक जीवन में आलम कुछ और ही है। भर्तृहरि ने शताब्दियों पूर्व कहा था कि सेवाधर्म सामान्यजन के लिए तो क्या,  योगियों के लिए भी परम गहन है। किन्तु आज के आला अफसरों को ऐसी प्रतीति कदाचित् दूर-दूर तक नहीं होती। उनके स्वभावगत अहंकार,  सर्वज्ञता के भ्रम और राजसी शैली से तो सभी वाकिफ रहे हैं,  किन्तु हाल के वर्षों में उनमें आत्म-विज्ञापन का आसव पीकर उन्मत्त होने की जैसी उत्कट लालसा देखने में आ रही है,  वह चिन्तनीय है।

एक समय वह था,  जब सरकार के बड़े अफसर भले ही कितने सुविधाभोगी रहे हों,  किन्तु आत्म-प्रचार की व्याधि से ग्रस्त नहीं थे। मुझे याद आता है,  पाँच दशक से अधिक समय पूर्व का वह प्रसंग,  जब राजस्थान के सबसे लंबे समय तक मुख्य सचिव रहे स्व. भगवत सिंह मेहता ने शासन द्वारा प्रकाशित एक पत्रिका में इन पंक्तियों के लेखक द्वारा सम्पादक की हैसियत से उनका एक चित्र छापे जाने पर पत्र लिखकर आगाह किया था कि भविष्य में कभी भी सरकारी अधिकारियों के चित्र विकास विभाग की उस पत्रिका में न छापे जायें। किन्तु बदलाव कितना आ गया है कि पिछले दिनों एक सरकारी विभाग की पत्रिका में उनके अपने शासन सचिव और विभागाध्यक्ष के ही एक दर्जन से अधिक चित्र प्रकाशित किये गये थे। ऐसी एक नहीं अनेक शासकी पत्रिकाएं और समय-समय पर प्रकाशित होने वाले सामयिक प्रकाशन आपकी दृष्टि से गुजर जायेंगे, जिनमें सरकार के आला अफसरों की तस्वीरें बड़ी संख्या में आये दिन अनिवार्य रूप से छपती रहती हैं।
मजे की बात तो यह है कि आजकल किसी भी सरकारी विभाग या गैर सरकारी संस्थान का कोई भी सार्वजनिक आयोजन हो, विभागीय मंत्रियों के साथ विभागीय सचिव और विभागाध्यक्ष भी समारोह में विशिष्ट अतिथि बनते हैं और अध्यक्षता करते हैं। इतना ही नहीं नेताओं को जिस प्रकार शाल ओढ़ाकर या सिर पर साफा पहनाकर सम्मानित किया जाता है,  उसी तर्ज पर अधिकारियों का भी सार्वजनिक सम्मान किया जाता है। बात चाहे राज्य की राजधानी की हो या कि किसी प्रदेश के जिला क्षेत्रों की,  परिदृश्य वही नजर आता है। जिला कलक्टर तो आये दिन ही इस प्रकार के समारोहों को अपनी उपस्थिति से उपकृत करते रहते हैं। ऐसे अवसरों पर निकलने वाली स्मारिकाओं और पुस्तिकाओं में उनके नयनाभिराम चित्र भी सैकड़ों की संख्या में देखने को मिल जायेंगे। इतना ही नहीं,  आला अफसरों के संदेशों से भी सभी सरकारी और गैर-सरकारी प्रकाशन भरे रहते हैं,  जिनके साथ अनिवार्य रूप से उनके चित्र लगे होते हैं। प्रायः प्रत्येक राज्य के सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय के अन्तर्गत कार्य कर रहे जिला जनसंपर्क अधिकारी तो जिला कलक्टरों के भाषण और तस्वीरें आंचलिक साप्ताहिकों और पाक्षिकों में छपाकर उनका कृपा-प्रसाद पाने में ही अपने कर्म की सार्थकता समझते हैं। राज्य की राजधानियों और बड़े नगरों में होने वाले साहित्यिक,  सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजनों पर यदि दृष्टि डालें,  तो अक्सर दूरदर्शन,  आकाशवाणी और सूचना निदेशालयों के अधिकारी मंच पर मुख्य अतिथि,  विशिष्ट अतिथि या अध्यक्ष के रूप में बिराज रहे होंगे। आयोजकों द्वारा मंच पर उन्हें सुशोभित करने का मंशा एक ही होता है कि उनके कार्यक्रम को प्रचार मिल जाये। प्रचार की इस प्रक्रिया में संचार माध्यमों के कीर्ति पुरूषों के चित्र तो मुद्रित या इलेक्ट्रानिक मीडिया में स्वतः स्थान पा ही लेते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि राज्य शासन या केन्द्र शासन द्वारा इसका कोई नोटिस नहीं लिया जाता कि ये अधिकारी इन रस्मी आयोजनों के उद्घाटन और समापन समारोह में राज-काज को परे रखकर अपना कितना समय बर्बाद करते हैं। यूंकि इस कोटि के अधिकारी प्रायः सरकारी वाहनों में ही ऐसे आयोजन स्थलों पर जाते हैं, इसलिए वाहनों का दुरूपयोग भी प्रकटतः होता ही है। पिछले डेढ़-दो दशकों में आला अफसरों में आत्म-प्रचार की यह प्रवृत्ति इतनी तेजी से बढ़ी है कि वह राजनेताओं की आत्म-विज्ञापन-कामिता से होड़ लगाती है। राज्य कोष में निरन्तर सेंध लगाने वाले ये उच्च वेतन भोगी आला अफसर इन प्रचारात्मक प्रवृत्तियों में कितनी ऊर्जा,  समय और सार्वजनिक धन का अपव्यय करते हैं,  इसकी कल्पना की जा सकती है। क्या सरकारें अपने इन लोकसेवकों पर उनकी इस आत्म-प्रचारात्मक मानसिकता को तोड़ने और उनके द्वारा जनप्रतिनिधियों के साथ समारोहों में मंचस्थ होने पर कोई अंकुश नहीं लगा सकती?

इतना ही नहीं,  विशेष अवसरों और अभियानों के दौरान जो बड़े-बड़े विज्ञापन मंत्रियों के नयनाभिराम चित्रों और उपलब्धियों के अतिरंजित आंकड़ों के साथ छापे जाते हैं,  उनमें भी अनेक बार आयोजनकर्ताओं में नौकरशाही की चाटुकारिता के अभ्यस्त लोग आला अफसरों के फोटोग्राफ छपाते रहते हैं। पीछे मुड़कर देखें, तो स्वाधीनता प्राप्ति के बाद देश के पुर्ननिर्माण की दिशा में नेहरू युग में जो कार्य हुआ,  उसकी उपलब्धियों के आंकड़े और उनके साथ बड़े-बड़े चित्र कभी भी उस बेहूदा ढंग से नहीं छापे गये जिस तरह से आजकल छापे जा रहे हैं। आज के वरिष्ठ नागरिकों को वह युग भूला नहीं है,  जब कभी भी न तो सरकारी उपलब्धियों के बड़े-बड़े इश्तहारों पर करोड़ों रूपये स्वाहा किये जाते थे और न गाहे-बगाहे छपने वाले प्रचारात्मक विज्ञापनों में कभी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू,  सरदार पटेल या गोविन्द वल्लभ पंत के चित्र छपते थे। किन्तु अब तो नेताओं की तो बात ही क्या है विभिन्न आयोजनों के अवसरों पर छपने वाले विज्ञापनों में जिला स्तर तक के अधिकारियों के चित्र धड़ल्ले से छप रहे हैं।

इन दिनों एक और रोग बड़ा तेजी से फैल रहा है। देश में अनेक व्यक्ति और संस्थाएं सम्मानों का कारोबार कर रही हैं। बीसियों ऐसी संस्थाएं महानगरों में बनी हैं,  जिनके संरक्षक अधिकांशतः अब महत्वहीन हो चुके बड़े नेता, पूर्व मंत्री और पूर्व सांसद हैं। ये संस्थाएं और इनसे जुड़े चालाक व्यक्ति नाना प्रकार के सम्मानों का आयोजन करते हैं और विविध क्षेत्रों में सेवाओं के लिए विभिन्न वर्गों के लोगों को मोटी रकम लेकर सम्मानित करने की तिजारत करके अपनी तिजोरियां भरते रहते हैं। उनकी व्यूह रचना ही यह होती है कि वे ऐसे पुरस्कारों और सम्मानों का बड़ा प्रभावशाली नामकरण करते हैं और फिर उसके लिए ऐसे यशपिपासु ढूंढते हैं,  जो अक्ल के अंधे और गांठ के पूरे होते हैं। सम्मानों के इस कारोबार को पनपाने में वे आला अफसर भी बड़े सहायक होते हैं,  जो स्वयं इन सम्मानों और अलंकरणों को निःशुल्क प्राप्त कर अपने को धन्य समझते हैं। इन सम्मानों के कारोबारी और धंधेबाज लोगों की रणनीति ही यह होती है कि वे कुछ आला अफसरों को सम्मान के इस मोहजाल में फांसें,  ताकि वे उनके नामों का उल्लेख करके कुछ ऐसे धनी लोगों को भी फांस सकें जो विभिन्न व्यवसायों में लगे रहने के साथ मिथ्या  सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के व्यामोह में ऐसे विकृत सम्मान प्राप्त करने के लिए मोटी रकम दे सकें। अभी कुछ वर्षों पहले ही अपने एक परिचित व्यवसायी को ऐसे ही तथाकथित राष्ट्रीय सम्मान से दिल्ली में सम्मानित किया गया था और उनके साथ कुछ आला अफसर भी सम्मानित हुए थे। अपने उन परिचित व्यवसायी की भव्य तस्वीर जब मैंने एक समाचार पत्र में छपी देखी,  तो मैंने उन्हें फोन पर बधाई देना चाहा तो उनसे यह दुखड़ा रोये बिना नहीं रहा गया कि वह सम्मान प्राप्त करने और फोटो छपाने में उन्होंने पूरे 50,000  हजार रूपये व्यय किये हैं।

ऐसे आला अफसरों की भी कमी नहीं हैं जो अपने को बड़ा कवि या गायक समझने की भ्रान्ति पाले रहते हैं। अक्सर ऐसे नौकरशाह कवि कार्यालय समय में भी अपना काव्य पाठ अपने मित्रों और सहधर्मी अधिकारियों के सामने करने से बाज नहीं आते। अपने प्रभाव का उपयोग करके वे न केवल अपनी घटिया किस्म की तुकबन्दियों के संकलन छपाते रहते हैं,  बल्कि पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करने की टोह में भी रहते हैं। आला अफसरों द्वारा अपने मिथ्या अहम् की तुष्टि के लिए कराई जाने वाली इस प्रकृति की वैनिटी पब्लिशिंग के सैकड़ों नमूने पुस्तक विक्रेताओं की दुकानों पर देखे जा सकते हैं। काश! राज्य सरकार अपने अफसरों के इस आत्म-विज्ञापन के व्यामोह पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक निर्देश जारी कर सके।

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