सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

ऐसे भी थे एक जनसम्पर्क निदेशक


राजस्थान-निर्माण के आरंभिक वर्षों में जब विभिन्न राज्य सेवाओं का न तो गठन हो सका था और न विभिन्न विभागों के वरिष्ठ पदों के लिए कोई कायदे-कानून ही बने थे,  राज्य सरकार स्वेच्छा से जैसा उचित समझती,  वरिष्ठ पदों पर अफसरों की तैनाती कर रही थी। इसी दौर में उत्तर प्रदेश से एक जनसम्पर्क निदेशक लाये गये। डॉ सम्पूर्णानन्द के सुपुत्र सर्वदानन्द वर्मा ने बिना किसी पूर्व अनुभव के इस पद को सुशोभित किया। उनकी सबसे बड़ी योग्यता यह थी कि उन्होंने कुछ उपन्यास और नाटक लिखे थे और रंगकर्म में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी। वे कुँआरे थे और गृहस्थी की झंझट से मुक्त होने के कारण काफी समय कार्यालय को देते थे। पर समय का सदुपयोग वे विभाग के लिए कम और अपनी रसिक वृत्तियों की संतुष्टि के लिए ही अधिक करते थे। प्रातः कार्यालय खुलने के समय जैसे ही वे निदेशक पद की कुर्सी पर आसन ग्रहण करते,  उसके तुरन्त बाद वे स्कॉच व्हिस्की की एक बोतल मंगाने का आदेश देते और प्रायः नित्य ही एक कलाकार बंगाली युवती को कई-कई घंटे कक्ष में बैठाये रखते। जितने समय वह युवती उनके साहचर्य में रहती,  बाहर लाल रंग की बत्ती जलती रहती, जो इस बात का संकेत देती रहती कि कोई भीतर प्रवेश करके उनकी प्राईवेसी भंग न करे।

सर्वदानन्द वर्मा को भले ही शासकीय अनुभव नहीं था, फिर भी अपने संक्षिप्त कार्यकाल में जो शायद एक वर्ष से अधिक नहीं था, राज-काज को भी अपने ढंग से निपटाने की कोशिश की थी। वे दूसरे-तीसरे दिन विचाराधीन पत्रावलियों का निस्तारण करते और विशुद्ध हिन्दी में अपनी टिप्पणी लिखते थे। भाषा की शुद्धता पर उनका बड़ा जोर था और वे अधीनस्थ अधिकारियों की भाषिक अशुद्धियों के कारण अक्सर उन्हें बहुत लताड़ते थे। जिस अधिकारी की नोटिंग में वर्तनी की अशुद्धि होती, उसे इंगित करते हुए वे अक्सर यह निर्देश देते रहते थे – ‘कृपया अपनी इमला सुधारें’ ।

सर्वदानन्द जी ने जनसम्पर्क निदेशालय के तत्वावधान में कई नाटक मंचित कराये, जिनमें प्रायः उन्हीं की स्क्रिप्ट होती थी। विभाग के अनेक लोगों को उन्होंने रंग-कर्म की ओर प्रवृत्त किया और अभिनय में उनका निर्देशन भी किया। अपने कार्यकाल में उन्होंने कवि-सम्मेलन भी आयोजित कराये। अपनी इन उपलब्धियों का लेखा-जोखा उन्होंने ‘प्रशासन का ललित पक्ष’ शीर्षक से प्रकाशित भी किया। विभाग में उस समय बहुत कम अधिकारी थे, फिर भी उनके स्वभाव में अहंकार इतना था कि वे किसी के भी प्रति बहुत स्नेहशील नहीं थे।

दुर्भाग्य से उनके अत्यधिक मदिरापान और रसमयता के चर्चे सचिवालय के गलियारों और मीडिया मित्रों की गोष्ठियों में होने लगे। अन्ततः वह दिन शीघ्र ही आ गया, जब उनके पिता डॉ  सम्पूर्णानन्द के गहरे मित्र और राज्य के मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास को यह सन्देश भेजना पड़ा कि वे ‘अपने रत्न को यथाशीघ्र वापस बुलालें।‘        सर्वदानन्द जी त्याग-पत्र देकर लखनऊ प्रस्थान कर गये और इस प्रकार इस दिलचस्प प्रकरण का अन्त हुआ। राजस्थान शासन में अब तक पच्चीस से अधिक जनसंपर्क निदेशक रह चुके होंगे,  पर सर्वदानन्द तो सर्वदानन्द ही थे।

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