बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

रे मूर्ख! कोटिश: कह


जो लोग बीकानेर के डॅूंगर कालेज में पढ़े हैं उनसे और राजस्थान की पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों से पं. विद्याधर शास्त्री का नाम अजाना नहीं है। वे प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ  दशरथ शर्मा के बड़े भाई थे। संस्कृत का अध्यापन करने के साथ-साथ वे देव वाणी में काव्य रचना भी उच्च कोटि की करते थे। प्रकृति से बड़े विनोदी और वत्सल स्वभाव के थे। अपने शिष्यों को बेहद प्यार करने वाले और आवश्यकता होने पर फटकार लगाने में भी नहीं चूकते थे।

साहित्य अकादमी के प्रारम्भिक वर्षो में अकादमी के संस्थापक-अध्यक्ष पं. जनार्दन राय नागर विभिन्न नगरों से साहित्यिक विषयों पर उपनिषदों का,  जिन्हें आजकल सेमिनार कहा जाता है,  आयोजन कराते थे। इन उपनिषदों में शास्त्री जी अवश्य  सहभागिता करते थे। प्रतिभागियों की संख्या अधिक होने पर समूहों में वैचारिक मंथन होता था। दो-तीन बार ऐसा संयोग हुआ कि शास्त्री जी की अध्यक्षता वाले समूह में इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल था। मध्यान्होत्तर सत्र में शास्त्री जी बड़े उतावले हो जाते थे और झटपट समापन करने की चेष्टा करते थे। बात दर असल यह थी कि शास्त्री जी को भंग पीने का व्यसन था। एक बार ऐसा हुआ कि विचार-विमर्श  में शाम के पांच बजने को आए। ऐसे में पंडित विद्याधर शास्त्री सत्र समाप्ति के लिए बहुत आतुर हो उठे और हॅंसते हुए लगे कहने‘ ‘हरे! हरे! पंडितों! समय विशिष्ट हो चुका है। व्यर्थ ही क्यों तर्क-कुतर्क कर रहे हो। जो कुछ सत्य है वह तो वेद इत्यादि में पहले ही कह दिया गया है।‘ प्रतिभागियों ने करतल ध्वनि के साथ हॅंसते हुए सत्र समाप्त कर दिया।

शास्त्री जी से सम्बंधित एक और दिलचस्प प्रसंग है। जैसा कि कहा जा चुका है, शास्त्री जी  अपने शिष्यों को बड़े वत्सल भाव से देखते थे। कोई शिष्य किसी ऊॅंचं पद पर पहुंच जाता तो वे बहुत गर्व का अनुभव करते थे। शास्त्री जी के षिष्यों की लम्बी कतार में इतिहास के विद्वान् नाथूराम खड़गावत भी थे। खड़गावत मूलतः इतिहास के प्राध्यापक थे। किन्तु कुछ समय बाद मुख्यमंत्री सुखाड़ि़या जी ने उन्हें राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखने का काम सोंपा। खड़गावत जी ने बड़ी मेहनत से पहला वॉल्यूम तैयार किया,  जिसका नाम था ‘ राजस्थान ड्यूरिंग 1857। तारीख तो याद नहीं,  पर किसी ऐतिहासिक दिन पर इस ग्रन्थ के विमोचन का आयोजन बीकानेर में किया गया। स्वयं मुख्यमंत्री ने विमोचन किया। भारी भीड़ थी। बड़ा भव्य समारोह था। जैसे ही समारोह सम्पन्न हुआ,  परम्परा के  अनुसार पुस्तक के लेखक खड़गावत जी धन्यवाद देने के लिए उठे। जैसे ही उनके मुख से ये शब्द  उच्चारित हुए -‘”देवियो और सज्जनो! मैं आप लोगों को कोटिश  धन्यवाद देता हूं,   कि बीच ही में ही खड़गावत जी के गुरु शास्त्री जी ज़ोर से चिल्लाए -‘रे मूर्ख! कोटिश:  कह।‘  सब हक्के-बक्के रह गए। खड़गावत जी ने मंच से ही अपने गुरु से क्षमा याचना करते हुए अपनी भाषिक त्रुटि में संशोधन किया। समारोह की समाप्ति पर खड़गावत जी नीचे उतर कर आए,  गुरु के चरण स्पर्श  किए और उन पर आशिषों की झड़ी लग गई। ऐसे थे विलक्षण गुरु और ऐसे थे सहिष्णु शिष्य!  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें