शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

नगर निगम के मुख्यालय में अग्नि-कांड


वैसे तो कदाचित् ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब जयपुर नगर-निगम से संबंधित कोई न कोई निन्दात्मक न्यूज स्टोरी स्थानीय समाचार पत्रों में न छपती हो। पर अभी दो दिन पूर्व नगर-निगम के मुख्यालय में हुए अग्नि-कांड में दो अनुभागों की फाइलें भस्मीभूत होने की खबर सचमुच चिन्ताजनक है। दफ्तरों में फाइलों को गुम करवा देना, दो चार महत्वपूर्ण फाइलों को निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा जलाया जाना तो समय-समय पर घटित होता रहा है। किन्तु इस प्रकार का फाइल-विनाशी अग्निकांड पहली बार ही सुना गया है। आग कैसे लगी, इसके बारे में तो स्थिति तभी स्पष्ट होगी, जब जाँच-समिति की रिपोर्ट सामने आयेगी, किन्तु यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस अग्निकांड में मेयर-विरोधी कुछ तत्वों का हाथ जरूर है। आग लगने का कारण बिजली का शॉर्ट सर्किट हो जाना भी हो, तब भी यह जाँच का एक मुख्य बिन्दु अवश्य होना चाहिए कि आग के पूरी तरह प्रज्जवलित हो जाने और उसमें पत्रावलियाँ जलते रहने की सूचना कब और कितने विलम्ब से दी गई और अग्निशामक कार्यवाही कितने विलम्ब से शुरू हुई। जो कुछ हुआ है, वह नगर के प्रबुद्ध जनों के मस्तिष्क को आन्दोलित करने वाला है।

पीछे मुड़कर देखें तो जब से ज्योति खंडेलवाल मेयर पद के लिए चुनी गई तबसे उन्हें शान्तिपूर्ण ढंग से काम करने देने का वातावरण नगर निगम परिसर में रहा ही नहीं। विपक्षी दल के साथ सिर-फुटव्वल और सी.ई.ओ’ज. के साथ संघर्ष का सिलसिला इस तरह चलता रहा है कि नगर-निगम तत्वतः एक कलह-केन्द्र बन गया है। मेयर पर तरह-तरह के आरोप भी लगते रहे हैं और सब ओर से उनके विरूद्ध चैन-चुरैया हरकतें होती रही हैं। तथ्यात्मक और सत्यात्मक स्थिति क्या है, कहना कठिन है। पर इन हालात का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करें, तो कहना होगा कि जब जब कोई मध्यम वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग की कोई महिला किसी महत्वपूर्ण आसन पर विराजमान होती है, तो लोग उसे कम ही बर्दाश्त कर पाते हैं। विशेष रूप से अधीनस्थ पुरूष कर्मियों की तो यह प्रवृत्ति ही है कि वे महिला-विरोधी ब्यूह-रचना में पूरी दिलचस्पी लेते रहें। यद्यपि राज्य में नारी-सशक्तीकरण की दुन्दुभी बराबर बजती रही है, पर महिला सरपंचों से लेकर महिला मेयरों और महिला मंत्रियों की जो स्थिति है, उस पर दृष्टि-निक्षेप करें, तो निराशाजनक निष्कर्ष ही प्राप्त होते हैं। आलम यह है कि बरसों पहले सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश जारी किये थे कि सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही क्षेत्रों के कार्यालयों में महिला यौन-उत्पीड़न और अशिष्टाचरण पर निगरानी रखने के लिए ऐसी समितियाँ गठित की जायें जिनकी अध्यक्ष न केवल महिला ही हो, अपितु उसके सदस्यों की संख्या में भी महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व हो। पूरे राज्य में सरकारी विभागों और सरकार द्वारा वित्त पोषित कितने संस्थानों में ऐसी समितियाँ बनी और उन्होंने क्या भूमिका निभाई, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है।

कोई एक दशक पूर्व इन पंक्तियों के लेखक ने एक अध्ययन सेंम्पल सर्वे पद्धति से कराया था, जिसका परिणाम यही निकला था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अन्तर्गत गठित समितियाँ पूर्णतः निष्क्रिय हैं और महिलाओं का उत्पीड़न कार्य-स्थलों पर पूर्ववत् जारी है। कितने दोषी अब तक दंडित हुए हैं, इसकी सरकारी स्रोतों से कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। कहने का आशय यह है कि वर्किंग वूमन किसी भी पद पर नियुक्त हो, या किसी भी शीर्ष पद पर वह लोकतान्त्रिक पद्धति द्वारा चयनित होकर बैठी हो, उसका मार्ग कंटकाकीर्ण ही रहता है। जयपुर नगर-निगम भी इसकी एक मिसाल ही प्रतीत होती है।

थोड़ी देर के लिए नगर-निगम प्रकरण को नजरन्दाज कर दें, तब भी यह तो सोचना ही होगा कि कार्यालयों में फाइलों का रख-रखाव बहुत प्रभावी एवं कड़ी सुरक्षात्मक व्यवस्था की मांग करता है। सरकार में अलबत्ता ऐसे भी कुछ कुशल और चौकन्ना रहने वाले आला अफसर हैं, जो गोपनीय फाइलों को आलमारियों में स्वयं बन्द करके रखते हैं और उनके निजी सहायकों की भी ऐसी पत्रावलियों तक पहुंच नहीं होती। वे अनुकरणीय हैं। बहरहाल, जयपुर नगर निगम में हुआ अग्नि-कांड गंभीर चिन्ता का विषय है और ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति किसी कार्यालय में न हो सके, इसके लिए उपचारात्मक कदम पूरी शिद्दत से उठाये जाने चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें