शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

रक्षा विज्ञान के आलोक-स्तम्भ: डी. एस. कोठारी


यह एक त्रासदी ही है कि दृश्य के बुहत निकट रहे होने के कारण प्रायः हम उन व्यक्तियों और संस्थाओं को लगभग विस्मृति के गर्भ में ले जाते हैं जिनका महान् अवदान ऐतिहासिक महत्व का होता है। किन्तु झीलों की विश्वविख्यात नगरी उदयपुर में जन्मे डॉ. डी.एस. कोठारी तो ऐसी विलक्षण विभूतियों में थे, जिन्होंने अपनी मात्र एक पृष्ठीय वसीयत में इस निर्देश को रेखांकित किया कि जो भी धनराशि उन्होंने अहिंसा और विज्ञान के उन्नयन के लिए छोड़ी है, उसका उपयोग कहीं भी उनके नाम से न किया जाय। ऐसे निष्काम, किन्तु ऋषि-तुल्य विज्ञानी के नाम का स्मरण मात्र करना किसी वैदिक ऋचा का पाठ करने से कम नहीं है। दौलत सिंह कोठारी महान् वैज्ञानिक और शिक्षाविद् तो थे ही,  पर उन जैसे महामानव भी विरले ही होते हैं। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति और महान् वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने विज्ञान दिवस पर अपने भाषण और अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘’इग्नाइटेड माइन्ड्स’ में यह ठीक ही कहा था कि भारत के पुनर्निर्माण में जिन महान् वैज्ञानिकों की अमूल्य भूमिका रही है,  उनमें डॉ. डी.एस. कोठारी,  डॉ. होमी जहांगीर भाभा और डॉ. विक्रम साराभाई का अवदान ऐतिहासिक महत्व का है। इसके पूर्व कि डॉ. कोठारी के विज्ञान और शिक्षा जगत को दिये गये असाधारण योगदान को संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जाये,  उनकी जीवन यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ावों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा।

दौलत सिंह कोठारी का जन्म 6 जुलाई 1906 को उदयपुर में हुआ था। उनके पिता फतेहलाल कोठारी एक अध्यापक थे और दुर्भाग्य से 38 वर्ष की आयु में ही अपनी पत्नी और चार अल्प वयस्क पुत्रों को छोड़कर इस संसार से विदा हो गये। दौलत सिंह कौठारी का शैक्षणिक जीवन असाधारण रूप से बहुत उज्जवल रहा। उदयपुर में प्रारम्भिक शिक्षा के बाद मेवाड़ के महाराणा द्वारा प्रदत्त 50 रूपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति पर वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उच्चतर अध्ययन के लिये चले गये,  जहां उन्होंने 1926 में बी. एससी.  और 1928 में एम. एससी.  की परीक्षा वायरलैस में विशेष अध्ययन के साथ उत्तीर्ण की। उस समय इलाहाबाद में मेघनाथ साहा जैसे श्रेष्ठ वैज्ञानिक भौतिकी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष थे। अल्प अवधि के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डेमोन्सट्रेटर के पद पर कार्य करने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार की छात्रवृत्ति पर वे सितम्बर 1930 में इंगलैण्ड चले गये,  जहां उन्होंने केम्ब्रिज विश्वविद्यालय स्थित कैवेंडिश लेबोरेट्री में महान् वैज्ञानिक लॉर्ड रूथरफोर्ड के साथ कार्य किया। कैम्ब्रिज से पी- एच.डी. की उपाधि प्राप्त करने के बाद वे अप्रेल 1933 में भारत लौटे और पुनः उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू कर दिया। इसके थोड़े दिन बाद जैसे ही दिल्ली विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में एक रीडर का पद खाली हुआ,  उनके गुरू प्रोफेसर साहा ने उन्हें उस पद के लिए आवेदन करने का परामर्श दिया और वहां उनका चयन हो गया।

डॉ. डी.एस. कोठारी का दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर पर आना जैसे वहां के वैज्ञानिक विषयों से जुड़े विभागों में शिक्षण और शोध के क्षेत्र में एक क्रान्ति युग की शुरूआत थी। उन्होंने अकादमिक क्षेत्र में किसी काम को छोटा या बड़ा नहीं समझा। सन् 1948 तक डॉ. कोठारी ने अपनी असाधारण प्रतिभा, कल्पनाशीलता और मानव कल्याण के लिए अर्जित अपनी उपलब्धियों को समर्पण-भावना के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय को जिन बुलंदियों पर पहुंचाया, उसका अनुमान लगाना आज बहुत कठिन है। अगस्त 1948 में भारत सरकार ने दिल्ली विश्वविद्यालय से अनुरोध किया कि वे डॉ. कोठारी की सेवाएं वैज्ञानिक परामर्शदाता के रूप में उन्हें दे दें। विश्वविद्यालय ने तीन वर्ष के लिए उनकी सेवाएं रक्षा मंत्रालय को दीं, किन्तु इस अवधि में भी डॉ. कोठारी समय-समय पर विश्वविद्यालय में अपने छात्रों से रूबरू होते रहे। 1952 में वे विश्वविद्यालय में वापस लौट आये, किन्तु वे रक्षामंत्री के मानद परामर्शदाता लगभग एक दशक तक बने रहे। 1961 में उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया, किन्तु दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पद पर उनका स्थान यथावत् रखा गया,  जहां से वे 65 वर्ष की आयु में जुलाई 1971 में सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद वे प्रोफेसर एमरिटस नियुक्त किये गये और आयु पर्यन्त उससे जुड़े रहे।

स्वाधीनता के बाद जैसे ही पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश की बागडोर संभाली,  उन्होंने इस यथार्थ को तुरन्त अनुभव कर लिया कि देश की नानाविध समस्याओं का निराकरण विज्ञान के माध्यम से ही हो सकता है। परिणामस्वरूप उन्होंने अनेक विशाल वैज्ञानिक शोध संस्थानों की स्थापना की। डॉ. होमी भाभा के नेतृत्व में अणु ऊर्जा आयोग बनाया,  तो डॉ. एस.एस. भटनागर के नेतृत्व में काउंसिल ऑफ  साइंटिफिक एंड इन्डस्ट्रीयल रिसर्च की शुरूआत की। इसके साथ ही रक्षा विज्ञान को संगठित करने का दायित्व डॉ. डी.एस. कोठारी को सौंपा गया। भारत सरकार ने रक्षा-विज्ञान को संगठित करने के मामलों में परामर्श देने के लिए इंग्लैण्ड के विश्व-प्रसिद्ध प्रोफेसर पी.एम.एस. ब्लैकेट को भी आमंत्रित किया,  जिन्होंने द्वितीय महायुद्ध में रक्षा विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान किया था। यह संयोग ही था कि प्रोफेसर ब्लैकेट, नेहरू जी और डॉ. कोठारी दोनों के ही मित्र थे। कैम्ब्रिज में प्रोफेसर ब्लैकेट और कोठारी ने साथ ही अनुसंधान कार्य किया था। इस प्रकार डॉ. कोठारी का यह मैत्री सम्बन्ध भारत में रक्षा विज्ञान की ठोस आधारशिला रखने में बहुत सहायक हुआ। जून 1949 में सरकार ने रक्षा विज्ञान संगठन स्थापित करने का निर्णय लिया,  जिसकी शुरूआत 40 वरिष्ठ वैज्ञानिकों और 100 कनिष्ठ वैज्ञानिकों के साथ हुई थी। आज यह संगठन इतना विस्तार पा गया है कि उसमें 25000 वैज्ञानिक सेवारत हैं। डॉ. कोठारी के प्रयत्नों से ही देश के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में प्रयोगशालाएं स्थापित की गई। डॉ. कोठारी ने इस तथ्य को भली भांति समझ लिया था कि रक्षा विज्ञान का लक्ष्य सशस्त्र सेनाओं की आवश्यकताओं की सम्पूर्ति करना था। विश्वविद्यालयों के तत्कालीन शान्त वातावरण की पृष्ठभूमि से सम्पन्न डॉ. कोठारी ने अपने मधुर स्वभाव और विनयशीलता से जल, थल और वायुसेना तीनों के ही प्रमुखों के साथ अपना अच्छा संवाद स्थापित कर लिया था। रक्षा मंत्रालय के अधिकारी और तीनों सेनाध्यक्ष डॉ. कोठारी के विस्तृत ज्ञान से बेहद प्रभावित थे। उनकी कार्यशैली लोगों के लिए एक उदाहरण बन गई थी। जब द्वितीय महायुद्ध में अमरीका ने जापान में नागासाकी और हिरोशिमा पर अणुबम का विस्फोट किया, उसके बाद डॉ. कोठारी ने इस विषय पर दो व्याख्यान दिये, जिनमें से एक सामान्य जन के लिए था और दूसरा मिलिट्री के अधिकारियों के लिए। पंडित नेहरू उनके विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने यह प्रस्ताव किया कि डॉ. कोठारी और डॉ. भाभा इस विषय पर एक पुस्तक लिखें। पुस्तक का सारा लेखन डॉ. कोठारी ने ही किया और ’न्यूक्लियर एक्सप्लोजन्स एंड देयर इफैक्ट्स’ नामक यह पुस्तक भारत सरकार द्वारा 1956 में प्रकाशित की गयी। इस पुस्तक का रूसी, जापानी और जर्मन भाषाओं में अनुवाद हुआ। जर्मन अनुवाद की भूमिका में यह कहा गया कि डॉ. कोठारी की यह पुस्तक एक ऐतिहासिक कार्य था, जिसने इस विषय पर वैचारिक मंथन के द्वार खोल दिये थे।

डॉ. डी.एस. कोठारी की जन्म शताब्दी के अवसर पर एक श्रेष्ठ ग्रंथ ‘’विजन एण्ड वैल्यूज’ उनके सुपुत्र डॉ. ललित के. कोठारी और प्रो. रमेश के. अरोड़ा द्वारा संपादित किया गया था। पैरागॉन इन्टरनेशनल पब्लिशर्स द्वारा प्रकाशित इस वृहत् ग्रंथ में हमारे तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह सहित 50 से अधिक विद्वानों ने,  जिनमें विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक, समाज विज्ञानी और संस्कृति पुरूष समाविष्ट हैं, विभिन्न विषयक अपने आलेखों में डॉ. कोठारी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए एक स्वर से उन्हें भारत में रक्षा विज्ञान के अग्रदूत के रूप में रेखांकित किया है। नोबल पुरस्कार विजेता सर माइकल फ्रांसिस ने कहा कि डॉ. कोठारी एक विख्यात भौतिक विज्ञानी ही नहीं बल्कि महान् शिक्षाशास्त्री भी थे,  जिन्होंने भारत में उच्चतर शिक्षा को गतिशील बनाने में अपनी प्रभावी भूमिका अदा की थी।

डॉ. कोठारी विज्ञान के साथ-साथ अध्यात्म में भी गहरी रूचि रखते थे। उनकी मान्यता थी कि बहिरंग जगत तो विज्ञान के कर्मक्षेत्र और उसकी पड़ताल-परिधि में आता है,  किन्तु मनुष्य के भीतरी संसार के अनेक रहस्य ऐसे हैं,  जो विज्ञान की सीमा से परे हैं। संस्कृति पुरुष और प्राचीन भारतीय संस्कृति के व्याख्याता डॉ. कर्ण सिंह ने अपने एक संस्मरण में कहा है कि डॉ. कोठारी उनसे वेदान्त और विज्ञान के पारस्परिक सम्बन्धों पर अक्सर चर्चा करते रहते थे।

प्रसिद्ध रक्षा-वैज्ञानिक ए. नागरत्नम् ने भारत में 1948 से 1961 तक की अवधि को रक्षा विज्ञान के क्षेत्र में कोठारी युग की संज्ञा दी है। उनका कथन है कि आज देश में जो रक्षा विज्ञान का हमारा संगठन है और जिसके अन्तर्गत इस समय देश के विभिन्न भागों में 50 प्रयोगशालाएं कार्य कर रही हैं, उसका श्रीगणेश दिल्ली में राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला की दूसरी मंजिल पर मात्र 20 कमरों में किया गया था। उन्होंने बहुत सीमित संख्या में जिन वैज्ञानिकों को वहां कार्य करने के लिए आमंत्रित किया, उन्हें आज की तरह वैज्ञानिक अधिकारी का पदनाम न देकर केवल साइंटिस्ट या वैज्ञानिक का ही पदनाम दिया था। वैज्ञानिक सलाहकार के रूप में आज से लगभग 6 दशक पूर्व जब उन्हें ढाई हजार रूपये प्रति माह का वेतन देने की पेशकश की गई,  तो उन्होंने उसे लेने से इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के रूप में उन्हें जो 1250 रूपये प्रति माह का वेतन मिल रहा है,  वह पर्याप्त है। 1961 में जब वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के संस्थापक अध्यक्ष बने तो उसके साथ-साथ वे मानद विज्ञान परामर्शदाता भी रहे और मात्र एक रूपये प्रतिमाह का मानदेय उन्होंने स्वीकार किया।

रक्षा वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने अनुसंधान के लिये जिन मुख्य क्षेत्रों को चिन्हित किया उनमें आपरेशनल रिसर्च, बैलिस्टिक्स,  विस्फोटक,  शस्त्रीकरण,  रॉकेट्स और मिसाइल्स,  इलैक्ट्रानिक्स,  नौसेना सम्बन्धी तकनीकी,  इंजीनियरिंग,  खाद्य सामग्री,  जीवन विज्ञान,  प्रतिकूल पर्यावरण की समस्याएं और रक्षा सम्बन्धी संस्थानों में प्रशिक्षण आदि विषय मुख्य थे। वे कहा करते थे कि हमारे संसाधन सीमित हैं,  इसलिए हमें विज्ञान को पूरी तरह समझकर मितव्ययता के साथ और विवेक के साथ अपनी रक्षा-सामग्री का निर्माण करना चाहिए। इस संबंध में एक दिलचस्प प्रकरण का उल्लेख अक्सर किया जाता है। जब नाटो देशों द्वारा ग्नाट (Gnat) लड़ाकू विमान को नकार दिया गया,  तो नेहरूजी असमंजस में थे कि भारतीय वायुसेना के लिए उसे क्रय करें या नहीं। जब उन्होंने डॉ. कोठारी से परामर्श किया,  तो उन्होंने बड़े विमानों की तुलना में उस छोटे आकार के अल्पमौली विमान के लाभ उन्हें डाइग्राम बनाकर समझाए। उन्होंने मनोरंजक ढंग से उस मच्छर का उदाहरण दिया,  जिसकी गुन-गुन तो सुनाई देती है,  पर जिसे पकड़ना मुश्किल होता है। यह प्रकरण इस तथ्य का पुष्ट प्रमाण है कि डॉ. कोठारी प्रधानमंत्री के कितने विश्वासपात्र थे। डॉ. कोठारी की यह मान्यता थी कि विज्ञान और तकनीकी की प्रगति मानव कल्याण के लिए निरन्तर हो,  यह जरूरी है,  किन्तु वह संकट में पड़ जाएगी अगर उसके साथ-साथ मनुष्य का नैतिक विकास रूक गया और मानवता की भावना का क्षरण हो गया। उनका कहना था कि आत्म नियंत्रण और अहिंसा में आस्था के बिना विज्ञान और तकनीकी विकास,  गरीब और अमीर देशों के बीच में खाई को और अधिक चौड़ा  करता चला जायेगा।

डॉ. कोठारी अपने निजी जीवन में कितने सरल और विनयशील थे,  इसकी कल्पना करना कठिन है। उनके घर में विवाह जैसा कोई मांगलिक कार्य होता तो प्रकटतः उसमें समाज के हर क्षेत्र के शीर्ष लोगों का जमघट तो होता ही,  किन्तु डॉ. कोठारी ऐसे अवसर पर अपने गृहसेवकों को भी अतिथि के रूप में आमंत्रित करना नहीं भूलते थे,  और स्वयं उनकी आवभगत करते थे।

प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी पुस्तक ‘’बिटवीन दी लाइन्स’ में एक बड़ा दिलचस्प रहस्योद्घाटन किया है,  जिसमें कहा गया है कि जब मोरारजी देसाई ने मंत्री बनने से इन्कार कर दिया तो लालबहादुर शास्त्री ने जगजीवन राम से संवाद न करके डॉ. होमीभाभा और डॉ. डी.एस. कोठारी दोनों को मंत्री पद देने की पेशकश की,  किन्तु दोनों वैज्ञानिकों ने इस आमंत्रण को विनयशीलता के साथ अस्वीकार कर दिया। अमेरिका के चिकित्सा विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक जार्ज वाल्ड जिनके साथ कोठारीजी का जीवन्त सम्पर्क था,  जब उन्हें कोठारी जी के निधन की सूचना मिली तो उन्होंने बड़े मर्मस्पर्शी शब्दों में अपने संवेदना-संदेश में कहा था कि मैंने उनके साथ एक पुस्तक लिखने की योजना बनाई थी,  किन्तु उनका हस्तलेख ऐसा था जिसे पढ़ने में बड़ी कठिनाई होती थी। वाल्ड के साथ दिल्ली में जब पहली बार उनकी मुलाकात हुई,  तो दोनों वैज्ञानिक इस बात पर सहमत थे कि मनुष्य द्वारा अब तक की गई सबसे बड़ी खोज इस सत्य को पाना है कि इन्द्रियों को जो प्रिय लगता है,  जरूरी नहीं कि वह मानव कल्याण के लिए भी उपयुक्त हो। अहिंसा,  नैतिकता और सारी समाज व्यवस्था इसी तत्व-चिन्तन की उपज है।

डॉ. कोठारी नैतिक मूल्यों के बड़े जबर्दस्त पक्षधर थे। उनके पुत्र ललित के. कोठारी जो सवाई मानसिंह मेडीकल कॉलेज में शरीर विज्ञान के सरनाम प्रोफेसर रहे हैं, उन्होंने अपने एक आलेख में कहा है कि अपने अंतिम दिनों में जब उनके पिता उनके साथ रह रहे थे,  तो उनके इस द्वितीय पुत्र ने कोई व्याधि न होते हुए भी उनकी शारीरिक जांच कराने का प्रस्ताव किया था। इसके उत्तर में पिता ने इतना ही कहा ‘’तुम्हें यह समझना चाहिए कि अब मेरे लिए कोई कार्य करना शेष नहीं है।‘

भारत की स्वातंत्र्योत्तर बौद्धिक विरासत के अविछिन्न अंग दौलत सिंह कोठारी 4 फरवरी 1993 को बिना किसी को कोई कष्ट दिये नींद में ही इस मर्त्यलोक को छोड़कर गोलोकवासी हो गये। जिस समय उन्होंने अपना देह त्याग किया, उस समय भी उनके तकिये के नीचे गीता और भक्तामर स्तोत्र की प्रतियां रखी थीं।

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