पंडित मोती लाल जी शास्त्री और वैदिक अध्ययन-अनुसंधान के लिए उनका संस्थान पूरे भारत में ही नहीं, समुद्र पार भी विख्यात था। वैदिक साहित्य पर उन्होंने अपने जीवन काल में 80 हज़ार से अधिक पृष्ठ लिखे थे। एक समय था जब देश के अनेक विद्वान् दूर-दूर से दुर्गापुरा स्थित मानवाश्रम में आकर पंडित जी से मार्ग दर्शन प्राप्त करते थे। डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल तो वहां प्रायः प्रति वर्ष आ कर लम्बी अवधि तक रहते थे। पंडित जी की वैदिक विद्वत्ता का इससे बड़ा सम्मान क्या हो सकता था कि देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन में उन्हें आमंत्रित कर उनके चरण पखार कर उनका अभिनन्दन किया था। मोती लाल शास्त्री जी ने वहां जो चार व्याख्यान दिए उनका संकलन आज भी अनुसंधित्सुओं के लिए मूल्यवान् संदर्भ सामग्री है। पंडित जी अपने प्रिय जनों और जयपुर वासियों से ढूंढ़ाड़ी में ही वार्तालाप करते थे, पर संस्कृतनिष्ठ इतने थे कि विद्वानों के साथ पत्राचार में वे अक्सर अपने नाम का भी संस्कृत रूपान्तर कर मोती लाल के स्थान पर ‘’मुक्त रक्त’ शब्द का प्रयोग तक करने से नहीं चूकते थे।
पंडित मोती लाल शास्त्री ने अपने ग्रन्थों के प्रकाशन के लिए जयपुर में बालचंद्र मुद्रणालय भी स्थापित किया था, जो इस क्षेत्र के लोगों द्वारा जयपुर का अपने ढंग का प्रथम प्रिंटिंग प्रेस बताया जाता है। उनके अपने अनेक ग्रन्थ इसी मुद्रणालय में छपे थे।
मोती लाल शास्त्री जी के श्रद्धालुओं में अनेक विद्यानुरागी श्रेष्ठी जन कलकत्ता में थे, जो मारवाड़ी उद्योग पतियों का बड़ा केन्द्र रहा है। उनके आमंत्रण पर जब पंडित जी कलकत्ता जाते थे, तो विदा होते समय उन्हें जितनी बहुमूल्य भेंट दी जाती थी, उसी के कारण शास्त्री जी बड़े समृद्ध विद्वानों में माने जाते थे। निकटस्थ लोगों का कथन है कि उनके यहां सोने-चांदी के बर्तन बड़ी संख्या में थे। पंडित जी उन दिनों में भी कार में चलते थे, जब किसी संस्कृत विद्वान् के पास ऐसी वाहन-सुविधा दुर्लभ थी।
पंडित जी को अंग्रेज़ी बिल्कुल नहीं आती थी। इसलिए उनकी वैदिक व्याख्याओं को अंग्रेज़ी में उपलब्ध कराये जाने की बड़ी आवश्यकता थी। इस आवश्यकता की पूर्ति की, तब जयपुर में कार्यरत पेट्रियट और लिंक के विशेष संवाददाता ऋषि कुमार मिश्र ने, जो आगे चल कर इन पत्रों के संपादक बनने के साथ-साथ संसद सदस्य भी बने और उनका प्रभाव राजनीतिक क्षेत्रों में भी असाधारण रूप से उल्लेखनीय रहा। ऋषि कुमार मिश्र पंडित मोती लाल शास्त्री के पट्ट शिष्य हो गए और उन्होंने लम्बी अवधि तक उनके सन्निकट रहकर वैदिक ज्ञान को आत्मसात् किया। इसी बीच मिश्र जी को दिल्ली शिफ्ट करना पड़ा और एक लम्बे अर्से बाद उनका अंग्रेज़ी में लिखित बहुचर्चित ग्रन्थ ^Before the Birth and After the Death* प्रकाशित हुआ, जो उनके अपने गुरु से अर्जित ज्ञान पर ही आधारित था। पर तब तक इतना विलम्ब हो चुका था कि मोती लाल शास्त्री बहुत पहले ही गोलोक वासी हो चुके थे। बाद में आगे चलकर कीर्ति-पुरुष कर्पूर चंद्र कुलिश ने भी पंडित जी द्वारा छोड़ी गई सामग्री का पूरा लाभ उठाया और शास्त्री जी के पुत्र कृष्ण चंद्र शर्मा से पंडित जी के ग्रन्थों और अप्रकाशित सामग्री को प्राप्त करने के साथ ही पं मधुसूदन ओझा जी के ग्रन्थों के आधार पर अध्ययन कर वे भी वेद-मर्मज्ञ के रूप में पहचाने जाने लगे।
अब भले ही सारा परिदृष्य बदल गया है, पर मानवाश्रम का परिसर तब बहुत विशाल था। उनका उद्यान तो आम्र कुन्जों के लिए मशहूर ही हो गया था। एक रोचक प्रसंग इसी से संबंधित है। शास्त्री जी ने अपने वैदिक संस्थान के लिए राज्य सरकार से कभी कोई सहायता नहीं ली थी। फिर भी अपने श्रद्धालुओं द्वारा बहुत आग्रह किए जाने पर उन्होंने अपने समधी और राज्य सरकार के गृह मंत्री राम किशोर व्यास के माध्यम से मुख्य मंत्री मोहन लाल सुखाड़िया को मानवाश्रम में आमंत्रित किया। सुखाड़िया जी निर्धारित समय पर अपनी राजसी ताम-झाम के साथ संस्थान में पधारे। गर्मजोशी के साथ उनका सादर सत्कार होने के बाद कोई दो घंटे तक पंडित मोती लाल शास्त्री उन्हें वेद-विज्ञान पर अपने काम के बारे में समझाते रहे और मुख्य मंत्री जी धैर्य पूर्वक सुनते रहे। अन्ततः जब विदाई का समय आया तो सुखाड़िया जी ने चलते-चलते कहा-‘’पंडित जी! आपका आमों का बगीचा बड़ा सुन्दर है।‘ इतना सुनना था कि शास्त्री जी ने कटाक्ष किया: ‘’करम फूट गए। दो घंटे तक माथा पच्ची की और समझ में आया, तो यह आया।‘ मुख्य मंत्री जी केवल मुस्कुराए और उनका काफिला वापस चल पड़ा। पंडित मोती लाल जी शास्त्री की राज्य के मुख्य मंत्री पर यह वक्रोक्ति बहुत दिनों तक ब्यूरोक्रेसी और पत्रकारों की गपशप में चर्चा का विषय बनी रही।
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