शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

प्राच्य विद्या, साहित्य और पत्रकारिता को समर्पित डॉ इन्दु शेखर


अपनी वाणी और लेखनी दोनों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के सन्देश को समुद्र पार पहुंचाने वाले संस्कृत और हिन्दी के विद्वान् एवं प्राच्य विद्याविद् डॉ. इन्दुशेखर डेढ़ दशक पूर्व कीर्तिशेष हो गये थे। यद्यपि अपनी आयु के लगभग बीस वर्ष उन्होंने कभी भारत-विद्या के प्रोफेसर के रूप में और कभी सांस्कृतिक सहचारी के रूप में विदेशों में ही व्यतीत किए थे,  तथापि जीवन के प्रारम्भिक और अन्तिम दौर में वे गुलाबी नगर की गोद में ही रहे। सुदर्शन देह-यष्टि,  मधुर संभाषण और अहर्निश आनन्दभाव में रहने वाले डॉ. इन्दुशेखर सही अर्थों में संस्कृति पुरुष थे। उनके मित्रों,  प्रेमियों,  श्रद्धालुओं और शिष्यों की एक बड़ी संख्या थी।

पांडित्य परम्परा में शिक्षा-दीक्षा
इन्दुशेखर का जन्म नाम देवदत्त था और उनका जन्म हरियाणा के गुड़गांव में 1 फरवरी,  1911 को हुआ था। उनका बाल्यकाल हरिद्वार के हृदय में बसी गुरुकुल कांगड़ी के उस सुरम्य वातावरण में व्यतीत हुआ था जहां पतितपावनी भागीरथी अठखेलियां करती है। उनके पिता कन्हैयालाल शास्त्री संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित थे और गुरुकुल में अध्यापन करते थे। परिणामतः देवदत्त की शिक्षा भी आर्य समाज की पांडित्य परम्परा में ही हुई। उन प्रारम्भिक संस्कारों का ही प्रताप था कि डॉ. शेखर को अथर्ववेद की सैंकड़ों ऋचाएं कंठस्थ थीं। शास्त्री तक अध्ययन करने के बाद इन्दुशेखर लाहौर चले गए जहां उन्होंने एम.ओ.एल. और एम.ए. की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। उन दिनों वे लाहौर में पं. उदयशंकर भट्ट,  हरिकृष्ण प्रेमी,  चन्द्रगुप्त विद्यालंकार आदि साहित्यकारों के निकट सम्पर्क में आए।

सन् 1935 में शिक्षा समाप्त करने के बाद इन्दुशेखर ने शिमला-दिल्ली में हारकोर्ट बटलर स्कूल में संस्कृत-हिन्दी के अध्यापक के रूप में जीविकोपार्जन का श्रीगणेश किया। तदन्तर वे दिल्ली के प्रसिद्ध सेंट स्टीफन कॉलेज में प्राध्यापक और दिल्ली प्रेस समूह के ‘’कारवां’ तथा  ‘एअरग्राफ’ पत्रों के सम्पादकीय विभाग में रहे। पांचवे दशक के आरम्भ में सर मिर्जा के सम्पर्क में आने के परिणामस्वरूप वे जयपुर के महाराजा कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए और इसी के साथ उनके अभ्युदय की शुरूआत हुई। वे तीन वर्ष तक कूच-बिहार में शिक्षा सचिव और सूचना निदेशक के रूप में भी प्रतिनियुक्ति पर गए।

1957 से लेकर 1960 तक तेहरान विश्वविद्यालय में इण्डोलॉजी के प्रोफैसर रहने के तुरन्त बाद वे विदेश मंत्रालय द्वारा नेपाल स्थित भारतीय दूतावास में सांस्कृतिक सहचारी के पद के लिए चुन लिए गए। तेहरान में वे सी. कुन्हन राजा जैसे दिग्गज प्राच्य विद्याविद् के उत्तराधिकारी थे,  तो नेपाल में उन्होंने शिवमंगल सिंह ’सुमन’ का स्थान लिया था। इन दोनों ही रूपों में उन्होंने इन पदों पर रहने वाले विद्वानों की विरासत में विस्तार किया। नेपाल में 12 वर्ष रहने के बाद अल्प समय के अन्तराल के अनन्तर विदेश सचिव टी.एन. कौल के आग्रह पर वे फिर थाईलैण्ड स्थित चिंगमाई विश्वविद्यालय में भारत विद्या के प्रोफेसर होकर चले गए।

1975 में वहां से लौटने के बाद वे कुछ समय तक ‘इतवारी पत्रिका’ से सम्बद्ध रहे और फिर भारतीय विद्या भवन के राजस्थान केन्द्र से जुड़ गए।

अनेक भाषाओं के ज्ञाता
आजीविका अर्जित करने के लिए वे जहां कहीं भी,  किसी भी स्थिति में रहे हों,  उनकी सृजन-धर्मिता सदाबहार रही। वे कवि,  नाटककार और भारतीय संस्कृति के व्याख्याता के रूप में देश-विदेशों में जाने जाते रहे। उन्होंने प्राच्य विद्याविदों के मास्को में आयोजित विश्व-सम्मेलन में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद की ओर से सहभागिता की थी। मूलतः इन्दुशेखर संस्कृत के विद्वान थे,  पर वे अनेक भाषाएं जानते थे। निरन्तर अध्ययन द्वारा उन्होंने अंग्रेजी में ऐसी महारत हासिल कर ली थी कि अन्तर्राष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों में वे धाराप्रवाह अंग्रेजी में भाषण करने में समर्थ थे। तेहरान-प्रवास के दौरान उन्होंने फारसी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था और ‘’पंचतंत्र’ तथा ‘’अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ का फारसी में अनुवाद भी किया था,  जिसे स्वयं ईरान के शाह की सरकार द्वारा प्रकाशित किया गया था।

अपने नेपाल-प्रवास के दौरान उन्होंने नेपाली भाषा पर बहुत अच्छा अधिकार कर लिया था। यहां तक कि नेपाल के तत्कालीन नरेश महेन्द्र वीर विक्रमशाह की प्रेम कविताओं के एक संग्रह का हिन्दी अनुवाद उन्होंने ‘’तुम्हारे लिए’ शीर्षक से प्रकाशित किया था। नेपाल के नृप से उनकी अंतरंग मैत्री हो गई थी।

हॉलैण्ड के प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान और भारत-विद्याविद् प्रो. जे. गौंडा से उनकी इतनी घनिष्टता हो गई थी कि सन् 1960 में उन्होंने इन्दुशेखर को युट्रेक्ट विश्वविद्यालय में आमंत्रित कर उन्हें डी.लिट्. के लिए शोध-प्रबन्ध लिखने को ही प्रेरित नहीं किया,  अपितु प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति विषयक ग्रन्थों के विश्व-विख्यात प्रकाशक ई.जे.ब्रिल द्वारा उन्होंने उनके शोध ग्रन्थ ‘’संस्कृत ड्रामाः इट्स ओरीजिन एण्ड डिक्लाइन’ को लाइडन से प्रकाशित  भी कराया। बाद में इस ग्रन्थ का भारतीय संस्करण मुंशीराम मनोहरलाल,  दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया।

सांस्कृतिक चेतना में भूमिका
राजस्थान और विशेषकर जयपुर की आज की पीढ़ी के बुद्धिजीवियों और लेखकों को यह तथ्य अल्प ज्ञात है कि डॉ. इन्दुशेखर ने अपने जयपुर-निवास के प्रारम्भिक दौर में यहां सांस्कृतिक चेतना लाने में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

1944 या 1945 में उन्होंने पैन (PEN) का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन जयपुर में आहूत किया था जिसमें जवाहर लाल नेहरू,  सरोजिनी नायडू,  डॉ. राधाकृष्णन,  शेखअब्दुल्ला और अंग्रेजी लेखक ई.एम. फोर्स्टर  तक ने भाग लिया था। वे जयपुर में रोटरी क्लब के संस्थापकों में से थे और वर्षों तक इसके सचिव रहे। मुझे आज भी स्मरण है,  1950 से 1957 तक का वह दौर जब इन्दुशेखर के सवाई मानसिंह अस्पताल के निकट स्थित निवास पर आए दिन कवि गोष्ठियों का आयोजन होता रहता था। इन गोष्ठियों में सहभागिता करने वालों में कविवर कर्पूरचन्द्र कुलिश,  रामनाथ कमलाकर,  मदनगोपाल शर्मा,  ताराप्रकाश जोशी आदि मुख्यतः होते थे। मैं स्वयं भी यदा-कदा उन गोष्ठियों में सहभागी होता था। कुलिशजी के डॉ. इन्दुशेखर के साथ बहुत आत्मीयता पूर्ण सम्बन्ध थे।

कारों के शौकीन
डॉ. इन्दुशेखर बहुत आमोद-प्रमोद प्रिय और राजसी प्रकृति के व्यक्ति थे। मैंने जब से उन्हें जाना,  वे उन गिने-चुने बुद्धिजीवियों में थे जो आज से 45 वर्ष पूर्व भी कार में ही चलते थे। उनकी वह हरे रंग की कार,  जो अक्सर हम कवियों को ‘’मौजी’ खिलाती थी,  मुझे आज भी याद है।

विदेश सेवा में चले जाने के बाद तो वे मर्सीडीज में बैठने लगे थे। संस्कृत का कोई पंडित अपनी निजी मर्सीडीज रखे,  यह अकल्पनीय लगता है। साठ के दशक में तो जयपुर की सड़कों पर एक-दो मर्सीडीज ही होंगी। अच्छी मदिरा और अच्छी मोटरों का उन्हें बेहद शौक था। अपने महाप्रयाण से पूर्व मात्र एक वर्ष की अवधि में उन्होंने तीन गाड़ियां बदली थीं और कुछ महीनों पहले तक वे स्वयं ड्राइव करके मेरे घर तक आ जाते थे। विदेशी लेखकों की तरह वे अपना अधिकांश पत्र-व्यवहार अंग्रेजी में ही सीधे टाइप राइटर पर स्वयं करते थे। सुरुचिपूर्ण संगीत के इतने शौकीन थे कि कैसेट्स का चलन होने से पूर्व उन्होंने मुझे एक बार बताया था कि उनके पास प्रसिद्ध गायकों की चुनी हुई रचनाओं के लगभग 1500 रैकार्ड हैं। कभी कुत्ते पालने का शौक भी उन्हें बहुत रहा था। बेहतरीन नस्ल के तीन-तीन कुत्ते उनके पास होते थे। एक बार तो उनके श्वान-शिशु पर,  जब वे काठमांडू में थे,  प्रसिद्ध नर्तक गोपीकृष्ण अपने प्रवास के दौरान इतने लट्टू हो गए थे कि डॉ. शेखर से उसे उन्हें देने का दुराग्रह कर बैठे थे।

संघर्षपूर्ण जीवन
डॉ. इन्दुशेखर उन लोगों में थे जो जीवन के संघर्ष को सहर्ष झेलते थे और हंसते-हंसते कटु अनुभवों का हलाहल पीते रहते थे। वे जब तक जिये,  जीवन की हर हलचल में उनकी दिलचस्पी बनी रही। नगर के किसी सिनेमाघर में चाहे नई फिल्म लगी हो,  कहीं नाटक हो रहा हो,  कवि सम्मेलन या मुशायरा हो,  सर्कस का शो हो रहा हो या क्रिकेट का मैच हो- वे सभी का आनन्द लेते थे। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था - ‘‘”दोस्त! जब तक जीवन में एक भी व्यक्ति तुम्हें प्यार करता है,  जीवन जीने के लायक है।“

डॉ. इन्दुशेखर ने जीवन को अपने वैविध्य में जिया था,  सृष्टि की सारी रंगीनियों में उनका मन रचा-रमा था। उन्होंने निर्भीक और मुक्त जीवन जीने की अपनी जो आनन्द शैली अख्तियार की थी,  उसे अन्त तक नहीं छोड़ा,  किन्तु जीवन के सन्ध्याकाल में अपने 44 वर्षीय पुत्र अभिजात शेखर की एक सड़क दुर्घटना में अकाल मृत्यु हो जाने के कारण भीतर से टूट चुके थे। फिर भी उनके लबों पर अपने लोकप्रिय गीत की ये पंक्तियां थिरकती रहीं:
जी रहा हूं,  क्योंकि
जीवन पर मुझे विश्वास है।
जी रहा हूं,  क्योंकि
जीने का मुझे अभ्यास है।।


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