शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

एक आला अफ़सर का सांस्कृतिक संकल्प


प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के विश्व-विख्यात् विद्वान् और राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति रहे डॉ. गोविन्द चन्द्र पांडेय के छोटे भ्राता विनोद चन्द्र पांडेय राजस्थान काडर के बड़े प्रखर बुद्धि आई.ए.एस. अधिकारी और सृजनधर्मी थे। जयसलमेर के जिला कलक्टर रहने के बाद जब वे 1962 में राजस्थान सचिवालय में वित्त विभाग के उपशासन सचिव होकर आये,  तो यह पद संभालने के चन्द दिनों बाद ही उन्होंने अपने विद्यानुराग के कारण मुझसे संपर्क की पहल की। मैंने ही उनके प्रथम उपन्यास ‘’रेत, शून्य, हवा’ की समीक्षा लिखी थी। साहित्यिक मैत्री की यह शुरूआत कुछ ऐसे शुभ मुहुर्त में हुई कि वह निरन्तर पल्लवित होती रही और उनके कैबीनेट सचिव बनने से लेकर बिहार, पश्चिम बंगाल और अरूणाचल प्रदेश का गवर्नर पद धारण करने और अन्ततः 73 वर्ष की आयु में गोलोकवासी होने तक बनी रही। दोनों की हैसियत में जमीन-आसमान का अन्तर होने के बावजूद मेरे अन्तरंग संबंधों की कल्पना इससे की जा सकती है कि उनके नई दिल्ली निवास डी-41 भारती नगर में ही अक्सर मेरा दिल्ली-प्रवास का समय कटता था।

उन्होंने अपना एक काव्य-संग्रह भी मुझे डेडीकेट किया था। पांडेय जी बड़े उर्वर मस्तिष्क के धनी थे। राज्य का विशिष्ट योजना-संगठन जो पूरे देश में चर्चित था,  उन्हीं की सूझ-बूझ से खड़ा हुआ था। वे बड़े दम-खम वाले और अपने नवाचारी विचारों को दृढ़ संकल्प के साथ क्रियान्वित करने वाले व्यक्ति थे। उनके कक्ष में एक मन्दिर का सुन्दर मॉडल सुसज्जित था। उनकी दृढ़ धारणा थी कि हमारे असंख्य देवालयों को संस्कृत और संस्कृति के केन्द्रों में विकसित किया जा सकता है। सन् 1982 में केन्द्र में प्रतिनियुक्ति पर जाने से कुछ दिनों पूर्व ही उन्होंने यह हठ कर लिया कि नई पीढ़ी को भारतीय जीवन मूल्यों में संस्कारित करने के लिए रामचरित मानस और महाभारत की प्रतियाँ राज्य के समस्त माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों में पहुँचाई जायें। पर उनकी डैड लाइन के अनुसार यह संकल्प साकार कैसे हो,  यही समस्या थी। उन्होंने एक वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी,  विनय व्यास को जो रूसी भाषा के प्रकांड विद्वान् थे,  और मुझे गीता प्रेस गोरखपुर भेजा। दुर्भाग्य से वहाँ तब कुछ आन्तरिक अव्यवस्थाएं चल रही थी। दोनों ग्रन्थों की लगभग 10 हजार प्रतियाँ वे देने की स्थिति में नहीं थे,  फिर भी उन्होंने हमें ये दोनों ग्रन्थ राज्य सरकार के स्तर पर छपाने का अधिकार पत्र इस शर्त के साथ दे दिया कि यदि ये ग्रन्थ समूल्य दिये जायेंगे,  तो इनकी कीमत वही रहेगी,  जो गोरखपुर संस्करणों पर छपी थी। हम दोनों वापस लौट आये। अब समस्या यह थी कि इसके लिए फंड कहाँ से आये। पांडेयजी स्वयं तो उस समय रीजनल स्कीम्स और समाज कल्याण के सचिव थे। पर पांडेयजी का दबदबा कुछ ऐसा था कि वे दूसरे विभागों में भी हस्तक्षेप कर लेते थे। उस समय के.के. भटनागर शिक्षा सचिव थे। ज्ञात हुआ कि उनके पास ‘आपरेशन ब्लैक बोर्ड’ स्कीम के तहत 21 लाख रूपये हैं। डॉ. आदर्श किशोर सक्सेना उस समय मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर के सचिव थे और पांडेय जी उन्हें बहुत वत्सल भाव से देखते थे। शायद इसलिए भी कि वे आदर्शजी के सबसे बड़े भाई डी.के. सक्सेना के मित्र थे, जिन्होंने एक मोड़ पर आई.ए.एस. छोड़कर संयुक्त राष्ट्र की सेवा का स्थायी रूप से वरण कर लिया था। स्मृति धोखा नहीं देती तो अनुमानतः 7 लाख रूपये पांडेयजी को इस पुण्य कर्म के लिए मिल गये। लेकिन मुद्रण की लागत गीताप्रेस गोरखपुर की कीमतों के समतुल्य कैसे आये। मेरी जानकारी के आधार पर उन्होंने कुछ प्रकाशकों की मीटिंग बुलाई। केवल एक साहसी प्रकाशक इस शर्त के साथ तैयार हुआ कि राष्ट्रीय पाठ्य पुस्तक मंडल से उन्हें अपने भंडार से रियायती दरों पर कागज मिले और आयकर विभाग इन दो महान् ग्रन्थों के प्रकाशन को लाभ का उपक्रम न माने। पांडेयजी ने पाठ्य पुस्तक मंडल के चेयरमैन और चीफ कमिश्नर इन्कम टैक्स को सादर आमंत्रित किया इन दोनों शर्तों से सहमत होने के लिए। पांडेय जी की वाणी में ही कुछ ऐसा प्रभाव था कि समझौता होते कुछ देर नहीं लगी। निश्चित तिथि तक दोनों पुनीत ग्रन्थ छापने के लिए जिस प्रकाशक ने चुनौती स्वीकार की थी,  उसे निर्धारित सरकारी प्रक्रिया के अनुसार आदेश दे दिया गया।

पुस्तकें छपकर तैयार हुई ही थी,  कि पांडेयजी 1982 के किसी माह में योजना आयोग में परामर्शदाता बनकर चले आये। मकान तुरन्त मिला नहीं,  वे राजस्थान हाउस में ही ठहरे थे। कोई सप्ताह बाद ही फोन आया कि ‘मन नहीं लग रहा। तुम थोड़े दिन के लिए आ जाओ।‘  मैं जयपुर में इन्हीं दिनों मुक्त छन्द में छपा उनका वैराग्य-शतक का अनुवाद लेकर राजस्थान हाउस पहुँच गया। आग्रह था कि जब तक रहूँ शाम का भोजन उन्हीं के साथ करूँ। एक दिन रात को जब भोजनोपरान्त पांडेयजी मुझे वैराग्य शतक के अपने रूपान्तर के कुछ अंश सुना ही रहे थे कि वहाँ अचानक विनय व्यास आ टपके। व्यासजी अपने नाम के अनुरूप ही बहुत विनयशील थे। वे हमारे पास के सोफे पर आकर बैठे ही थे कि पांडेयजी गरजे “विनय,  तुम अभी यहाँ से भाग जाओ, तुमने मदिरा पी रखी है,  तुम अभी तमस भाव में हो और हम साहित्य की सुरसरि में अवगाहन कर रहे हैं।“ विनय व्यास पांडेयजी से कुछ ही बैच नीचे के अधिकारी थे,  और अपनी विद्वत्ता के लिए भी सरनाम थे। मुझे पांडेयजी का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। मैंने उन्हें अपनी भावनाएं आहत होने से भी अवगत कराया। दूसरे दिन विनय व्यासजी के साथ मुझे भी नाश्ते पर बुलाया। बड़ी मनुहार से गोविन्द जी और प्रेमजी नामक वेटर्स ने हमें नाश्ता कराया। वे दोनों पहाड़ी थे,  इसलिए पांडेजी को विशेष प्रिय थे।

विनय व्यास उस समय प्राथमिक शिक्षा आयुक्त थे और सोवियत लैंड से लौटने पर उन्हीं की खातिर उस पद को अपग्रेड किया गया था।

पांडेय जी को हम दोनों से यह जानकारी प्राप्त कर परम संतुष्टि हुई थी कि रामचरितमानस और महाभारत इन दोनों ग्रन्थों का वितरण उनके केन्द्र में आ जाने पर भी यथा समय शालाओं में हो चुका था। पांडेय जी के साथ मेरे संबंधों ने मुझे एक ही सबक सिखाया कि याचना से व्यक्ति छोटा हो जाता है। मनुष्य की विश्वसनीयता आज नष्ट हो चुकी है। फिर भी कहना चाहूँगा कि मैंने पांडेय जी से कभी कोई याचना नहीं की और कदाचित् इसलिए उन जैसे कद्दावर व्यक्ति से मेरा भावनात्मक रिश्ता तीन दशक तक चलता रहा।

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