सन् 1989 के उत्तरार्द्ध की घटना है। तारीख या तिथि का स्मरण नहीं। जब आर्य समाज के तेजस्वी नेता स्वामी अग्निवेश ने वल्लभ सम्प्रदाय के विश्व प्रसिद्ध तीर्थ नाथद्वारा स्थित श्रीनाथ जी के मन्दिर में दलितों के प्रवेश के लिए अपना अभियान छेड़ा और राज्य सरकार ने उनकी पद यात्रा को विफल कर अपने अभीष्ट तक नहीं पहुंचने दिया, तो उसके चंद दिनों बाद मुख्य मंत्री शिव चरण माथुर ने घोषणा की कि वे स्वयं श्रीनाथ जी के मन्दिर में दलितों का ससम्मान प्रवेश कराएंगे। पूरी पूर्व तैयारियों के साथ निर्धारित तिथि को मुख्य मंत्री मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों, सांसदों आदि के साथ चेतक नामक सरकारी विमान से डबोक हवाई अड्डे पर उतरे और कारों द्वारा मंदिर चौक में पहुंचे, जहां से उनके साथ दलितों को मंदिर प्रवेश के लिए प्रस्थान करना था। चूंकि घटना तेइस वर्ष पूर्व की है और यहां प्रस्तुत विवरण मात्र स्मृति के आधार पर दिया जा रहा है, अधिक विस्तार में तो जाना कठिन है, पर फिर भी इस आलेख की केन्द्रीय विषय वस्तु की रोचकता और विस्मयकारी तथ्य किसी फिक्शन या गल्प से भी अधिक मनोरंजक हैं।
इन पंक्तियों का लेखक जन सम्पर्क निदेशक की हैसियत से पहले ही सड़क मार्ग द्वारा नाथद्वारा पहुंच चुका था। मुख्य मंत्री का जो संकल्प साकार होने वाला था, उसमें किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित न हो, उसके लिए चाक-चौबंद बन्दोबस्त किए गए थे। पूरा नाथद्वारा दूर-दूर तक छावनी में तब्दील हो गया था।
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मुख्य मंत्री और अन्य नेताओं की अगुवाई में प्रवेश का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। कुल मिलाकर शायद पूरा प्रोग्राम दो घंटे से अधिक की अवधि का नहीं था। मुख्य मंत्री जी अपने साथ आए हुए राज नेताओं को ले कर विमान से वापस जयपुर प्रस्थान कर गए थे। भारी भीड़ भी तितर-बितर हो चुकी थी। उस समय देवस्थान विभाग के कमिश्नर कदाचित् डी. सी. शर्मा थे। वे साहित्यिक रुचि के विद्यानुरागी थे। अंग्रेज़ी-हिन्दी में कविताएं भी लिखते थे और स्वभाव से धार्मिक चित्तवृत्तियों के व्यक्ति थे। उनसे मेरा पूर्व परिचय था और वैसे भी प्रशासनिक शिष्टाचार की दृष्टि से हम दोनों को मिलना ही था। वे कार्यक्रम समाप्ति के थोड़ी देर बाद मुझे मंदिर में ले कर गए। एक बार फिर से भगवान् श्रीनाथ जी के दर्शन किए। अपने एक पूर्व परिचित विभागाध्यक्ष के प्रति अपना मैत्रीभाव प्रकट करने के लिए वे मुझे उस ओर ले गए जहां श्रीनाथ जी का प्रसाद विशिष्ट लोगों को दिया जाता था। देवस्थान कमिश्नर ने प्रसाद प्रभारी से कुछ प्रसाद मेरे लिए लाने का अनुरोध किया। ज्ञात हुआ कि वहां कोई प्रसाद षेष नहीं है। बहुत पूछताछ करने पर बताया गया कि जितना प्रसाद मंदिर में था, वह ट्रक भर कर जयपुर मुख्य मंत्री निवास पर भेज दिया गया। बहुत अविश्वसनीय बात थी, पर किया क्या जा सकता था? जिस महिमामय मंदिर में रात-दिन दिव्य प्रसादी तैयार होती रहती हो, वहां यह उत्तर चकित कर देने वाला था। बहरहाल।
मैं जयपुर लौटते समय मार्ग में प्रतिपल इसी अनहोनी लगने वाली घटना पर विचार करता रहा। दूसरे दिन प्रातःकाल ही मैं लगभग 9 बजे मुख्य मंत्री निवास पहुंच गया। मुझे चैन कहां था? पहुंचने के तुरन्त बाद ही मुझे मुख्य मंत्री के ड्राइंग रूम में प्रवेश करा दिया गया। वहां दो-तीन बड़े व्यक्ति पहले से विराजमान थे। मुख्य मंत्री जी ने इतनी सुबह बिना बुलाए उनकी सेवा में उपस्थित होने का कारण पूछा। मैंने उत्तर दिया कि मैं एकान्त में कुछ निवेदन करना चाहूंगा। वे मुझे उस ड्राइंग रूम के भीतर स्थित एक अन्य ड्राइंग रूम में ले गए, जो सम्भवतः गोपनीय किस्म की चर्चाओं के लिए बना होगा। मुझे उसमें बैठने का यह पहला ही अवसर था। मैंने बैठते ही कुछ झिझकते हुए कहा- ‘’सर! मुझे परिजनों के लिए पाँच-दस किलो श्रीनाथ जी का प्रसाद चाहिए।‘ वे मुस्कुराते हुए बोले- ‘’आज आपको क्या हो गया है? इतना प्रसाद यहां कहां रखा है।‘ तब मैंने उन्हें पूरी घटना का विवरण दिया। वे भौंचक्के रह गए। उन्होंने अचानक अपनी पत्नी सुशीला जी को बुलाया और मेरी ओर संकेत करते हुए कहा ‘सुनिए, ये क्या कह रहे हैं? सुशीला जी ने अनभिज्ञता और आश्चर्य दोनों प्रकट किये। आनन-फानन में सी. आई. डी. के शीर्ष अधिकारी को इस घटना की तथ्यात्मक जानकारी जुटाने के आदेश दे दिए गए।
इस बारे में मुख्य मंत्री जी से मेरी फिर कोई चर्चा नहीं हुई। पर बाद में होने वाली काना-फूसी के अनुसार मुख्य मंत्री के निजी स्टाफ का एक व्यक्ति, जिसकी राज्य-सेवा में भले ही कोई हैसियत नहीं थी, किन्तु जो अन्यथा बहुत पावरफुल हो गया था, उसी के ग्राम में यह ट्रक लोड प्रसाद उसके निवास पर डिलीवर हुआ था, जिसका सदुपयोग उसने अपने पिता की पुण्य तिथि पर दिए गए महा भोज में कर लिया था। यह आरोप कितना प्रामाणिक था, यह कहना कठिन है। सत्य कब क्षेपक बन जाता है और क्षेपक कब सत्य की तरह स्थापित हो जाता है, इसका विश्लेषण बहुत जटिल है। बकौल राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर केः-
अलिखित ही रही सदा, जीवन की सत्य कथा,
जीवन की लिखित कथा, सत्य नहीं क्षेपक है।
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