सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

किस्सा टेंटड़ा ठाकुर की कार का


जयपुर रियासत के स्वामी महाराजा मानसिंह द्वितीय कदाचित् राजस्थान के तत्कालीन राजा-महाराजाओं में सर्वाधिक शिक्षित,  दृष्टि सम्पन्न और सामाजिक सरोकारों के प्रति हर समय सजग रहने वाले राजपुरूष थे। जयपुर की रियासत भी राजस्थान में सबसे बड़ी और अपने अतुल वैभव के लिए विख्यात् थी। मानसिंह की कीर्ति के स्मारक अनेक शैक्षणिक,  सांस्कृतिक और वैज्ञानिक संस्थान जयपुर में है। किन्तु उनकी एक बड़ी विशिष्टता जो अल्पज्ञात रही है,  उनके द्वारा रियासत के जागीरदारों,  ठिकानेदारों और ताजिमी सरदारों को ग्रामीण परिवेश से निकाल कर जयपुर में बसाना और उनकी संतति को आधुनिक शिक्षा देकर समय की धार के अनुरूप सुसंस्कृत बनाना था। पुराने जयपुर में जिधर से भी निकल जाइये,  कहीं बिचून हाउस, कहीं चौमू  हाउस,  कहीं लवाण हाउस,  कहीं अलूदा हाउस आदि बड़े-बड़े निवास विभिन्न जागीरदारों की ही निर्मिति थी। अब तो वह नजारा कभी का बदल चुका। अधिकांश जागीरदारों ने वे सम्पत्तियाँ कौड़ियों के मोल चालाक लोगों के हवाले करके उनका भाग्योदय कर दिया। जागीरदारों के राजसी भवनों की इसी कतार में सुप्रसिद्ध धूला हाउस था। जौहरी बाजार से चलें तो पुरानी फल मंडी के निकट और बापू बाजार की बैक में स्थित धूला हाउस एक मशहूर जगह थी। सन् 1950 में जब मैं पहली बार रावल कुबेर सिंह जी के दर्शनों के लिए धूला  हाउस पहुँचा तो मैं भौंचक्का रह गया। बाहर द्वारपाल की आज्ञा से प्रवेश। अन्दर एक कोने में रनिवास और कुबेरसिंह जी का दरबारे खास। कुछ फासले पर भट्टियों में शराब बन रही थी। मैं प्राचीन भद्रावती नगर और अब भांडारेज के नाम से जाने वाले ग्राम से आया था,  महाराजा कॉलेज में प्रवेश के लिए। भाँडारेज तब धूला ठिकाने के तहत् ही था। मुझे प्यार से रावल साहब ने अन्दर बुलाया,  पर निर्देश दिये गये कि मैं सोफे पर न बैठकर नीचे बैठूँ। मुझे धूला हाउस में स्थित एक बड़ी बिल्डिंग में जहाँ करीब बीस-बाईस कमरे बने थे,  स्थान मिल गया। किराया मात्र सात रूपये माहवार। बिजली, पानी मुफ्त। मेरे लिए यह भी सुखद था कि वहाँ पहले से दौसा,  अलवर,  जोधपुर आदि स्थानों के वरिष्ठ छात्र पहले से रह रहे थे। इस बिल्डिंग के पार्श्व में ही बना था टेंटड़ा ठाकुर साहब का आरामदेह निवास। टेंटड़ा एक छोटा सा ठिकाना था,  जिसके ठाकुर रावल कुबेर सिंह के रिश्ते में भाई लगते थे। गोरे लम्बे कद के टेंटड़ा ठाकुर साहब,  जिनका नाम मैं भूल चुका हूँ,  उस समय युवा थे। उनका एक ही शौक था - मदिरा गोष्ठियों का आयोजन करना,  नई-नई कारों में ऐंग्लोइन्डियन गर्ल्स के साथ घूमना और यार-दोस्तों के साथ मौजमस्ती करना। हममें से भी दो-तीन जो मैडीकल और लॉ  के छात्र थे,  उनके निकट हो गये थे। बहरहाल!

छोटा सा किस्सा यह कि जागीरदारों को मिली विशेष प्रिविलेज के तहत् टेंटडा ठाकुर साहब ने काले रंग की एक फोर्ड गाड़ी आयात की थी। धूला हाउस-निवासियों ने ही नहीं बाहर से भी कुछ लोग उसे देखने आये। तभी एक चमचे ने प्रस्ताव किया कि ‘’हुजूर, यह गाड़ी तो म्लेच्छों के देश से आई है,  इसलिए इसे दूध से धुलवाना चाहिए।‘  दूध के ढोल के ढोल बहाकर गाड़ी को दुग्ध-स्नान कराया गया। ठीक से पौंछा गया और उसे खुले में ही पार्क कर दिया गया। कुछ घंटों बाद गाड़ी पर सैकड़ों मक्खियाँ भिनभिनाने लगी। लोगों की हंसी रोके नहीं रूक रही थी। फिर भीड़ इकट्ठी हो गई। इस बार एक अन्य चमचे ने अर्ज किया ‘’हुजूर! म्लेच्छों के यहाँ से आई गाड़ी तो गंगाजल से ही पवित्र हो सकती है.’ सुझाव की भूरि-भूरि सराहना की गई। कई दूत हरिद्वार भेजे गये। बड़े-बड़े तांबे के मटके सेवक हरिद्वार लेकर गये। अन्ततः गंगाजल से गाड़ी की धुलाई कराके फिर उसका पूजन कराया गया।

राजस्थान के राजाओं पर तो राजनीति-विज्ञान के विद्वानों ने बहुत काम किया है,  पर जागीरदारों, ठिकानेदारों आदि के जीवन,  उनके बुद्धि-कौशल और उनकी सनकों पर स्याही कम ही इस्तेमाल की गई है। टेंटडा ठाकुर साहब के जीवन का यह छोटा सा प्रसंग इस स्तंभ-लेखक का आँखन देखा है।

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