सन् 1962 का वह दिन मुझे अभी भी याद है, जब तत्कालीन मुख्य सचिव भगवत सिंह मेहता ने प्रशासनिक शिष्टाचार और नए अफसरों के पहनावे पर विनोदपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा था, ”प्रभाकर, तुम अभी बच्चे हो। हमने तो वे दिन देखे हैं जब मेवाड़ में किसी रस्मी आयोजन में कोई बिना पगड़ी पहने जाने की जुर्रत नहीं कर सकता था। किसी ने अगर हिमाकत की तो उसकी खैर नहीं थी।“
लगभग 35 साल पहले का एक और किस्सा याद आता है, यह मेरी आंखों के सामने ही घटित हुआ था। राजस्थान लोक सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष एस. अड़वियप्पा उन दिनों विकास विभाग में रूरल हाउसिंग सैल के प्रभारी अधिशासी अभियन्ता थे। उन्हें उन दिनों हिन्दी पढ़ने का चाव चढ़ा था। इसी सिलसिले में मैं एक दिन उनके कक्ष में बैठा था कि उसी समय उनके निजी सहायक ने वहां प्रवेश किया। निजी सहायक के मुंह में इतनी बुरी तरह पान भरा था कि बोलने में भी सहजता भंग होती थी। अड़वियप्पा साहब बहुत शान्त प्रकृति के बड़े शिष्ट व्यक्ति थे। किन्तु बड़ी कठोरता के साथ उन्होंने अपने निजी सहायक को निर्देश दिया,‘”तुम आज कैजुअल लीव पर रहो। अब दुबारा मेरे कमरे में आने की जरूरत नहीं है।“
कुछ वर्षों पूर्व मैं एक संगोष्ठी के सिलसिले में कोटा में था। संगोष्ठी की संध्या को एक स्थान पर आठ-दस व्यक्तियों के अनौपचारिक संवाद और आस्वाद का कार्यक्रम था। वहां जिला स्तर के एक युवा अधिकारी ने प्रवेश के साथ ही वह पराक्रम दिखाया कि धूम्रपान विहीन उस शालीन वातावरण को भंग करते हुए सिगरेट मंगाने का आदेश दिया और सिगरेटें फूंक फूंक कर उसका धुआं उन वयोवृद्ध विशिष्ट अतिथियों पर उड़ाते रहे, जिनमें साठ के आसपास की मीडिया जगत से जुड़ी एक महिला भी थी। अगली सुबह जब इन महिला ने मेरे साथ बातचीत की और मैंने गत संध्या की घटना पर खेद प्रकट किया, तो उत्तर में उन्होंने हँसते हुए कहा ”ये सब बाल-लीलाएं हैं। इनसे अच्छा मनोरंजन हो जाता है।“
शिष्टाचार-हन्ता इन उदाहरणों के ठीक विपरीत अतिशय शिष्टाचार और विनम्रता का एक प्रसंग आज भी मुझे ममत्व से अभिभूत कर देता है। बहुत पुरानी घटना है। मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी और राजस्थानी साहित्य के मर्मज्ञ कैलाश दान उज्जवल से मिलने उनके निवास पर गया था। गृह-सेवक ने मेरा नाम पूछा और मुझे बरामदे में बैठने को कहा। बाड़मेर की तरफ का ठेठ ग्रामीण नौकर था। कदाचित् मेरा नाम ठीक से नहीं बता पाया। करीब पन्द्रह मिनट बैठा होऊंगा कि उज्जवल साहब जो उस समय टीवी देख रहे थे, किसी काम से उठे। शाम का समय था। रोशनी में जाली के दरवाजे से मेरी मुखाकृति दिखाई दी। वे तुरन्त बाहर आए। मुझ से पूछा कि मुझे आए कितनी देर हुई थी। मैंने उन्हें स्थिति बता दी। उन्होंने पहले तो सेवक को डांट-फटकार लगाई और फिर क्षमा-याचना करते हुए मुझे भीतर ले गए। मैंने बहुत कहा कि मुझे अधिक समय नहीं हुआ है और नौकर की गलती नहीं है, वह मेरे नाम का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाया। मैं थोड़ी देर उनके साथ रहकर घर लौट आया। रात्रि को अचानक करीब साढ़े दस बजे उज्जवल साहब का फोन आया। वे कह रहे थे, ”प्रभाकरजी, थे म्हांनैं माफ करियो क नहीं? म्हारा मन मैं घणों पछतावो होरियो है।“ मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मेरे मन में कुछ नहीं है। मैं आपके स्नेह से विह्वल हूं।
एल.एन. गुप्ता, जिनका पूरा नाम लक्ष्मीनारायण गुप्ता है, प्राचीन भारतीय जीवन मूल्यों को आत्मसात् किये आज कल अपनी बँगलाभाषी सहधर्मिणी के साथ दुर्गापुरा के निकट प्रेम-निकेतन-आश्रम में अपना पिचहत्तर के पार जीवन निर्विकार भाव से व्यतीत कर रहे हैं। वे केन्द्र सरकार और राज्य सरकार में सचिव स्तर के पदों पर रहने के अतिरिक्त प्रधानमंत्री नरसिंहाराव के कार्यकाल में राजस्थान में राष्ट्रपति शासन के दौरान परामर्शदाता भी रहे। पर सिद्धान्तों से समझौता उनके लिए संभव ही नहीं था। उन्होंने कुछ माह बाद ही त्याग पत्र दे दिया। गुप्ता जी ने अन्य आला अफसरों की तरह कभी अपने घर पर सरकारी ऑर्डरली या सेवक नहीं रखा। उनका एक मात्र निजी सेवक भँवर नाम का युवक था, जिसकी पत्नी को उन्होंने घर की बीनणी कह कर ही सम्मान दिया। एक बार मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे प्रशासनिक सेवा के दौरान घटित सर्वाधिक स्मरणीय घटना पर आधारित कोई एक संस्मरण प्रकाशनार्थ दें। गुप्ता जी मुस्कुराकर बोले “मुझे कुछ याद नहीं, मैं जिस दिन सेवा-निवृत्त हुआ, उसी दिन मैंने अपनी स्मृति के इस पक्ष का स्विच ऑफ कर लिया था कि मैं कभी भारतीय प्रशासनिक सेवा में था और फिर कोई भी व्यक्ति जब संस्मरण लिखता है, तो उसमें कहीं न कहीं ‘’मैं’ तो आ ही जाता है, जो अहंकार का द्योतक है।“ उनकी असहमति भी कितनी शालीनता पूर्ण थी!
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