बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

अखबारों के भरोसे हकूमत नहीं होती


वनस्थली विद्यापीठ जैसी महिला-शिक्षा की विश्व प्रसि़द्ध संस्था के संस्थापक और विधान सभा के अस्तित्व में आने से पूर्व राजस्थान के प्रथम मनोनीत मुख्य मंत्री पं. हीरालाल शास्त्री अपनी योग्यता और नेतृत्व क्षमता दोनों के लिए विख्यात् थे। जिस काल खंड में वे स्वल्प अवधि के लिए सत्तारूढ़ हुए, उस समय उनका पदनाम प्रधान मंत्री था,  जिसमें बाद में परिवर्तन हुआ। शास्त्री जी की लेखन-क्षमता अद्भुत थी। उन्होंने बड़ी संख्या में जन-जागरण और नारी-चेतना के गीत ढूंढ़ाड़ी बोली में लिखे थे। वे हिन्दी,  अंग्रेज़ी और संस्कृत तीनों भाषाओं में पारंगत थे,  पर उनके अनेक असाधारण गुणों के साथ उनका सबसे बड़ा अवगुण उनका अहंकार था। इस अवगुण के कारण ही आगे चलकर राजनीति के क्षेत्र में उनका पराभव हुआ। उनकी अहमन्यता से जुड़े कुछ रोचक प्रसंगों में एक बहुचर्चित प्रसंग अखबारी दुनिया से सम्बंधित है।

अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत सजग रहने वाले शास्त्री जी अपने मुख्य मंत्रित्व काल में एक बार विश्राम के लिए तीन दिन के अज्ञातवास में गए। जाने से पूर्व उनकी सबसे बड़ी हिदायत अपने निजी सचिव को यह थी कि उन्हें विश्राम काल में अखबार नहीं भेजे जाएं। उनसे मानसिक शान्ति भंग होती है। जब उनके अति विश्वास पात्र ने समाचार पत्रों के प्रातःकालीन अवलोकन की अनिवार्यता बताई, तो उन्होंने फटकार लगाते हुए कहा-‘”अखबारों के भरोसे हकूमत नहीं चलती। क्या मैं अखबारों से ही राज्य की हलचल जान सकूंगा?” बेचारे निजी सचिव के पास आदेशों की अनुपालना के सिवा क्या विकल्प हो सकता था!

इसी प्रकार जब वे मुख्य मंत्री थे,  तो उन्होंने अपने एक पुराने कार्यकर्ता और वनस्थली में रहे अपने पूर्व निजी सचिव इन दोनों को,  जो अब उनके विरोधी हो गए थे और सक्रिय राजनीति में आ कर वे जय नारायण व्यास और टीका राम पालीवाल का समर्थन कर रहे थे,  एक बार गाड़ी भेज कर अपने बनीपार्क स्थित निवास पर आमंत्रित किया। दोनों व्यक्ति कदाचित् मन ही मन पुलकित हुए होंगे। पर जब वे वहां पहुंचे, तो लम्बे इन्तज़ार के बाद उन्हें भीतर बुलाया और बोले- ‘”मैंने तुम दोनों को यह कहने बुलाया है  कि तुम दोनों चूहे हो और मैं डूंगर हूं। चूहे चाहें तो डूंगर में बिल बना कर रह सकते हैं,  डूंगर को उखाड़ कर नहीं फेंक सकते। बस तुम्हें इतना ही बताना था। अब जा सकते हो।“  बेचारे दोनों बड़े बे आबरू हो कर नीचे आए, जो गाड़ी उन्हें लेने गई थी,  वह वहां से नदारद थी। लाचार होकर दोनों को पैदल ही लौटना पड़ा।

उन का अहंकार सत्ता से च्युत होने पर भी कम नहीं हुआ था। वे मुख्य मंत्री पद से हटने के कई साल बाद एक बार टोंक या मालपुरा क्षेत्र की यात्रा करते हुए एक डाक बंगले में ठहरे। वहां के वी. आई. पी. कक्ष में उन्होंने देखा कि एक पंक्ति में जिन राज नेताओं की तस्वीरें लगी हैं,  उनमें एक तस्वीर उनकी भी है। शास्त्री जी के तीखे तेवर सजग हो उठे। डाक बंगले के मैनेजर को बुला कर बोले-‘”ये जो तस्वीरें लगा रखी हैं,  उनमें से मेरी तस्वीर उतरवालो। किन कीड़े-भुनगों के साथ मेरी तस्वीर को टांग दिया गया है।“  बेचारा मैनेजर स्तब्ध रह गया। करता भी तो क्या करता।

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