प्राचीनकाल से लेकर आज तक समाज के समृद्ध और खाते-पीते वर्गों में गृह सेवक रखने की परम्परा रही है। एक समय था, जब गृह सेवक भी एक परिवार के साथ न केवल अपने जीवन का श्रेष्ठतम भाग सेवा धर्म में गुज़ारते थे, अपितु उनकी हैसियत यह भी हो जाती थी कि वे अपने स्वामी के पारिवारिक मामलों में भी यथा आवश्यकता अपना परामर्श देते थे और कई बार पारिवारिक विग्रह और कलह का निवारण करने में अपनी भावनात्मक भूमिका निभाते थे। गृह स्वामी भी उनकी सेवाओं के लिए उनको यथोचित ढंग से पुरस्कृत और सम्मानित करते थे। शुक्र नीति में कहा गया है कि स्वामी का कर्तव्य है कि वह सेवकों की हथेलियों को स्निग्ध रखे। इस नीतिगत कथन का मंतव्य यही था कि व्यक्तिगत सेवा चाकरी में रहने वाले व्यक्तियों को हमेशा उन्हें अपनी उदारता से प्रसन्न रखने का प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु आज तो सारी स्थितियां ही बदल गई हैं। भौतिकता की इस दौड़ में न पहले जैसे स्वामी रहे और न सेवक। फिर भी किसी-न- किसी रूप में घरों में नौकर-चाकर रखे ही जाते हैं, भले ही उनका स्वरूप बदल गया हो। आजकल जब पढ़े-लिखे परिवारों में महिलाएं जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय सहभागिता करने लगी हैं, या वेतनभोगी पदों पर कार्य करने लगी हैं, तो ऐसी कामकाजी महिलाओं के लिए तो किसी-न-किसी रूप में आया, बाई, महाराजिन, महरी या अन्य कोई सेवक रखने की आवश्यकता बढ़ती ही जा रही है। किन्तु दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि सम्भ्रांत घरों में भी पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुष अपने सेवकों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, जो मानव मूल्यों की दृष्टि से सर्वथा निन्दनीय है।
प्रायः देखा गया है कि अधिकांश ऐसे घरों में सेवकों के लिए रूखा-सूखा अलग खाना बनवाया जाता है। परिवार के अन्य सदस्य जैसा आहार लेते हैं, उसकी तुलना में उनका भोजन प्रायः पोषक तत्वों से विहीन होता है। परिणामतः वे कुपोषण के शिकार भी हो जाते हैं। सबसे आपत्तिजनक बात तो यह होती है कि जब घर में कोई मिठाई अथवा कोई सुस्वादु व्यंजन परिजनों द्वारा उपयोग में लाया जाता है और जब वह उपयोग के योग्य भी नहीं रहता, तो उसे गृहसेवकों को अपने घर ले जाने के लिए दे दिया जाता है। एक क्षण के लिए भी उनके मन में यह विचार नहीं आता कि जो वस्तु वे स्वयं खाने योग्य नहीं समझते, उसे अपने सेवक को खाने के लिए क्योंकर दिया जाना चाहिए। फ्रिज में पड़े-पड़े फल या सब्जी़ जब ख़राब होने की स्थिति में आती है, तो वह भी प्रायः गृह सेवकों को या उनके परिजनों को उदरस्थ करने के लिए दे दी जाती है। अनेक बार तो इस दुष्प्रवृत्ति के कारण गृह सेवक बीमार भी हो जाते हैं।
यही आलम वस्त्रों के मामले में नज़र आता है। अक्सर ऐसे वस्त्र जो फटे-पुराने होते हैं या परिवार के सदस्यों की पसन्द से गिर जाते हैं, उन्हें गृह सेवकों को ही भेंट में देकर अपनी उदारता का परिचय दिया जाता है।
शादी-ब्याह या अन्य मांगलिक अवसरों पर भी अक्सर यही होता है कि एक ओर जहॉं दूसरे सदस्यों के लिए हज़ारों रुपए के महंगे परिधान अवसर विशेष के लिए बनाए जाते हैं, वहीं सेवकों के हिस्से में चालाकी और चतुराई से बाहर से चमकदार दिखाई देने वाले घटिया किस्म के कपड़े ही आते हैं।
हालांकि इस तथ्य को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ अर्से से इन सेवकों द्वारा गृह स्वामी या स्वामिनियों की हत्या कर उनके गहने, नकदी आदि चुरा कर ले जाने की घटनाएं भी सामने आई हैं, पर इसके पीछे भी कारण निर्धनता ही है। यदि इन्हें भी अच्छा वेतन और खाने-पीने की समुचित सामग्री मिलती रहे तो कदाचित् इन चिन्ताजनक घटनाओं में कमी आ सकती है।
इसी प्रसंग में हम घरों में अंशकालिक रूप से काम करने वाली उन स्त्रियों का भी ज़िक्र कर सकते हैं, जिन्हें राजस्थान में आमतौर पर ‘’बाई’ कहकर सम्बोधित किया जाता है। अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों में ये ‘’बाइयॉं’ यूं तो काम के लिहाज़ से गृहस्थी का एक अनिवार्य अंग हैं और पड़ोसनों तथा परिचितों की आपसी बातचीत का एक प्रिय विषय भी हैं, जो इनकी अहमियत को ही रेखांकित करता है, परन्तु इन्हें भी जो मासिक वेतन दिया जाता है, वह मोटे अनुमान के आधार पर परिवार की कुल आमदनी का पचासवें हिस्से से भी कम ही होता है। यही नहीं, उसे भी इस अंदाज़ से दिया जाता है कि तीन से अधिक छुट्टी की तो प्रतिदिन के हिसाब से पैसा काटा जाएगा।
ये ‘’बाइयॉं’ जो पिछले 10-15 वर्षों पूर्व सैंकड़ों मील दूर अपने परिवार के साथ काम की तलाश में यहॉं आई हैं, किन स्थितियों में रह रही हैं, हम इसका आकलन तब तक नहीं कर पाते, जब तक इनके तथाकथित आवासों को हम एक बार देख नहीं लेते। जिन बस्तियों में ये रहती हैं और जिस तरह का अपौष्टिक भोजन इन्हें प्राप्त होता है, वह इनके आए दिन रोग ग्रस्त हो जाने का बहुत बड़ा कारण है।
आज आवश्यकता यह विचार करने की है कि इन्हें कैसे सम्माननीय नागरिकों का दर्जा देते हुए इनके जीवन स्तर में सुधार लाया जाए और साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि इनके बच्चे भी विद्यालयों में पढ़ने जा सकें।
जिन परिवारों में ये अंशकालिक सेविकाएं काम करती हैं, उनका तो यह कर्तव्य बनता ही है, कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं भी इनके जीवन स्तर और इन परिवारों की आमदनी के बारे में सर्वे कराकर अपने सुझाव दे सकती हैं।
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